अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Thursday, December 22, 2011

""मुला देसवा होई गवा सुखारी,हम भिखारी रही गए "

आज शाम इवनिंग वाक् करते दुर्गापूरा(जयपुर)वाली सड़क पर निकल गई वहां देखा मैंने मेट्रो निर्माण में लगे उन दिहाड़ी मजदूरों को शाम के धुंधलके ठिठुरते ठण्ड में सड़क किनारे पास पड़े पुराने टायर ट्यूब ,रद्दी गत्ते बटोर कर आग तापते हुए, दिनभर की मजूरी से थके लोग अपनी थकान को उस आग के तपन में झोकते हुए... उनमे से फिर कोई एक बीडी निकलता है और उस अलाव से सुलगा कर एक कश खीच कर दुसरे को बढा देता है, एक बीडी साझा करते और अपने फ़िक्र का धुआं बाहर निकालते..कैसा तो सकून देखा मैंने उने चेहरे पर ...एक कश भीतर और धुएं में सारा दर्द बाहर और चेहरे पर चमक उनमे से एक गीत गुनगुनाता है .........................!

"महँगी के मारे बिरहा बिसरिगा,भूली गई कजरी कबीर

मुला देसवा होई गवा सुखारी ,हम भिखारी रही गए "

 
और बाक़ी सब भी उसका साथ देते गाने लगते हैं ................!

महंगाई के मारे बिरहा बिसरिगा,भूली गई कजरी कबीर

देखी के गोरिया के उमडल जोबनवा.उठे ना करेजवा मा पीर"

और सभी के चेहरे पर एक सुकुन भरी मुस्कान है .....एक अजीब सा एहसास हुआ कुछ जलन भी हुई ऐसा सकून हमें क्यूँ नहीं मिलता .....काश वो सुकुन भरा कश खीचने गुस्ताखी कर अपनी फ़िक्र मैं भी उनकी मानिंद हवा में उड़ा पाती ,पर क्या वो सकून मेरे चेहरे पर आ पायेगा?...शायद नहीं ...मैंने दिनभर बदनतोड़ मेहनत जो नहीं की है !!!

Tuesday, December 20, 2011

"कुछ मुख्तलिफ एहसास"

 आज ये दिल गज़ब जिद पे अड़ा है
जो खोई हर चीज है उसे ढूंढे पड़ा है ..:)
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गम का .....
तपता रेगिस्तान तुमने जिया
आँसुओं का.....
खारा समंदर हमने पिया
इस तरहा ...
हम तुम में जिंदगी ज़ज्ब होती रही
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बालिश्तों से नापते रात कट ही जाएगी
दिल को यकीं है हसीं सुबह जरुर आएगी
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उसे ये जिद है,के मैं पुकारूँ उसे
मुझे ये तकाजा,के वो बुला ले मुझे
इसी तसलसुल में रात बेहीस हुई जाती है
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एक समन्दर आग का
और मोम की नाव
पार लगे किस हाल बन्धु
नाव लगे किस ठावं
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पल भर का
आना भी........
कैसा आना प्रीय .!
हर आना ............
अपने में लिए होता है ......
लौट जाना .............!
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~``
इक जंग वाबस्ता है 'खुद' का 'खुद' ही से
'औरों' के हमलों का फिर क्या जवाब दें
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~``
तुम्हारे दिखाए सब्जबाग की अब आदत रही नहीं
अब सर्द रातों में सूखे पत्तों का सुलगना ही भाता है
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ये गुब्बारे भी .........
.......क्या खूब होते हैं
जरा सी हवा में .......
...................अर्श को
आशियाँ समझ लेते हैं
... ...........गोकि उन्हें भी
फ़ना फर्श पर ही होना है
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~```
तेरी जुस्तजू में ....!
मेरी जिंदगी इक मुसलसल सफ़र है
....और मंजिल है तू .........!
जो मंजिल तक पहुचूँ तो मंजिल ही चल दे ....."
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शब्दों के कोलाहल से
मौन के कोलाहल तक कि यात्रा
परम आतम कि,प्रथम अनुभति है
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ना हो जाएँ जहाँ में सियार हावी
शेरों को अब मांद से निकलना होगा
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~``
हमसे है अव्यवस्था ...
अव्यवस्था से हैं "हम" ..
फिर भी गुरेज ,के,
हमारे देश में सबसे
"व्यवस्थित अव्यवस्था" है "
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~```
तू कहे तो इस वतन के सदके अपनी जाँ भी दे दूँ
पर ये खूँ बेजां नालियों में बहे,ये गवारा नहीं मुझे
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हैं वतन परस्त हम भी,पर दिल कुछ उलझ सा जाता है
वतन के रहनुमाओं ने,बाँट जो रखे हैं दायरे अपने अपने
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माना के जो बीता वो रोज़ बीतेगा तुझपर
पर जो टूटा था वो रोज़ टूटता है मुझपर
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~```
रात कि ख़ामोशी लोरी सुनाने लगी
ए ख्वाब ठहर मुझे नींद आने लगी
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
उफ़!! नामुराद आज ये "दिल" क्यूँ इतना खाली खाली सा है
ख़ुशी की उम्मीद नहीं,"गम" को भी पाला मार गया लगता है
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
हर नफस घोलती रही अपना वजूद जिनके वजूद में
वो ही आज पूछते हैं "रोज़" बता तेरा वजूद क्या है
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~~~S-ROZ~~~~
 

Tuesday, December 13, 2011

"तुम्हारे दो शब्द "

शब्दों के हेर फेर से ,
चाहे कुछ भी लिख लूं
पर तुम्हारे दो शब्द
देते हैं अर्थ मिटटी का
जिसमे सूखे बीज भी ,
अंकुरित हो उठते हैं
और अनायास ही,
आने लगती है
अनखिले फूलों की सुगंध !!
~~~S-ROZ~~~

Thursday, December 8, 2011

"माँ" के मायने "

ट्राफिक सिग्नल पर...
फूल,खिलौने बेचते बच्चे
कार के शीशे पोछते बच्चे
अपने बच्चों की मानिंद
अपने क्यूँ नजर नहीं आते
शायद..,एक"माँ" होके भी
मुझे"माँ" के मायने नहीं आते
~~~S-ROZ ~~~
 
 

Thursday, November 17, 2011

"दरख़्त "

मेरी दरख़्त के पोसे चूजों के
अब 'पर' फड़ फड़ाने लगे हैं
खुश लम्स शाखों की ओट
नाकाफी है उनके लिए
जाना तो होगा ही उन्हें
... मंजिल की तलाश में
शायद लौटकर आना
मुमकिन ना हो उनके लिए
इल्तजा यही है ......
जान-ए-अज़ीज़ चूजों से
राह में दिखे कोई तनहा दरख़्त
उसमे 'अक्स' मेरा ही देखना
~~~S-ROZ~~~

Friday, November 11, 2011

ख्वाहिश को चलते देखा"

 मुद्दतों से 
अपाहिज सी
इक ख्वाहिश
जो पड़ी थी
दिल में कहीं
... जाने कैसे तो
कल ख्वाब में
उसे चलते देखा
पा लेने को उसे
मचलते देखा !
~~~S-ROZ~~~

Tuesday, November 8, 2011

"गुनगुनी धूप "

 
इस पहर की ,गुनगुनी  धूप
मेरे चौखट पर,यूँ आई है
जैसे तेरे प्यार की ,परछाई है
तन में तपन है ,नेह का सृजन है
लगता है ऐसे ,संग सजन है
इस पहर की ,गुनगुनी धूप
जो अब जाने को है
क्या कल फिर आयेगी ?
बीते  सुहाने एहसासों को
क्या फिर से जगाएगी ?
~~~S-ROZ~~~
 
 

Thursday, October 13, 2011

'नजूमी' ने कहा था"

बहुत पहले ......
किसी 'नजूमी' ने कहा था 
तुम्हारे  हाथों  में ...
उम्र कि लकीर बड़ी छोटी है
हमने यकीं ना किया
उसकी बात पर
पर बगैर जिस्म के  
मेरे भीतर का  शख्स  
जाने कितनी बार मरता रहा  
ख़ुदकुशी करता रहा  
पर बड़ा ढीठ शख्स निकला  
लडखडाता फिर उठ खड़ा हुआ 
जिंदगी की मुश्किलातों  से
जूझने को ....
'नजूमी' ने शायद ........
इस "नीम जिंदा" जिंदगी को
जिंदगी कि लकीर  में
शामिल नहीं किया था !
~~~S-ROZ~~~
नीम जिन्दा=अर्धजीवित
नजूमी=ज्योतिषी
 
 
 

Monday, October 10, 2011

ए ग़ज़ल ......................आज तो तू बेवा हो गयी

तुझको देखा तो नहीं,
महसूस किया है मैंने
जिंदगी से दर्द ही मिले
हौसले से जिया तुमने
बगैर शिकायत किये
तनहाइयों के साथी थे तुम
जख्म ए दिल के मरहम थे तुम
ग़ज़लों को नए मानी दे कर कहाँ हो गए गुम
....
आँखों से रोना जाना था दिल कैसे रोता है आज जाना है ..."जगजीत जी" आप कभी रुखसत हो ही नहीं सकते सबके दिलों में जीतें हैं आप !अमर हैं आप!!
.
हुआ  रुखसत  आवाज और साज़ से सजाने वाला
ए ग़ज़ल ......................आज तो तू बेवा हो गयी
~~S-ROZ~~
 

Wednesday, October 5, 2011

"मुद्दत हुई "

बहुत मशरूफ सा रहने लगा है या के कोई रंज है
मुद्दत हुई कायदे से कोई हिचकी आए!
ना आफताब निकला,ना शमा जली ना ही चाँद है
मुद्दत हुई कायदे से घर में रौशनी आए !
ना ही दिलखुश मंजर है,ना ही तेरी गुलज़ार बातें हैं
मुद्दत हुई कायदे से लब पे कोई हँसी आए!
रुसवा जो हुई ख़ुशी मेरे दर से और रातें भी ग़मगीन है
मुद्दत हुई कायदे से मेरी जिंदगी में जिंदगी आए !
~~~S-ROZ~~~

Sunday, September 18, 2011

"दिल में उभरे कुछ एहसास "

अभी आया जो "भूकंप" तो थरथरा सी गयीं इमारतें
उनका क्या, जिनके "चॉल"बारिशों से रोज़ ढह जाते हैं 
 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~`!
जिंदगी में "ख़ुशी"पड़ोसन से मांगे हुए जेवर सी है
हरपल एक धड़का सा लगा रहता है खो जाने का"
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~!
"सुन्दर सुशील सजनी "हिंदी" को दिए गए सब अधिकार
किन्तु सौतन बनी "अंग्रेजी मेम" को ही करते सभी प्यार
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~!
जो" किसान"अपनी जमीं पे सोने सी बालियाँ उगाते थे
वो" जवान" गैरों की जमीं पे गैरों के मकाँ बना रहे हैं
 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~`!
मशालें थामी थी हमने भी कुछ कर गुजरने को
"पर घर के बुझते चूल्हे को जलाना दरपेश आया"
 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~`~~!
खुद को खोकर" तुम्हे" पाया था
"खुद को पा कर"तुम्हे" खो दिया
~~~S-ROZ~~~

"मैं पतंग हूँ"

कई रूपों में,कई रंगों में
कई रिश्तों,कई भावों में
सभी कर्मों से
अन्तरंग हूँ !
कहीं बंधती हूँ,कहीं कटती हूँ
कहीं उड़ती हूँ,कही गिरती हूँ
पीड़ा डोर से बंधी
पतंग हूँ !
~~~S-ROZ~~~

Monday, September 12, 2011

अर्थ अपने अस्तित्व का

"महाभारत" के....
उस अंधे युग सा
आज के .....
इस अंधे युग का
तंत्र भी "संजय" सदृश है
दिव्य दृष्टि से पूर्ण ....
पर निष्क्रीय !निरपेक्ष !
न मार पाने में सक्षम!
न बचा पाने में सक्षम!
कर्म से पृथक !
क्रमश खोता जा रहा.
अर्थ अपने अस्तित्व का !
~~~S-ROZ ~~~



Thursday, August 18, 2011

"जब बंद करते हो बंशी बजाना ,आती हूँ निःशब्द पुकार सुन "


उड़ीसा के प्रमुख सहित्यकार श्री रमाकांत रथ जी"का  अनूठा खंड काव्य "श्री राधा " राधा के उदात्त और प्रेममय चरित्र के अनगिनत पृष्ठ खोलता है , इन्हें पढ़ते हुए ऐसे अद्भुत नयनाभिराम दृश्य पलकों पर स्थिर हो जाएँ और इस अद्भुत प्रेम की पुलक और सिहरन को पलकों से बहता देखा जा सके . निष्काम प्रेम की बहती सरिता ...रमाकांत रथ की राधा में डॉ मधुकर पाडवी ने इस ग्रन्थ की बेहतरीन समीक्षा " अहा! जिंदगी" में पढने के बाद  तो बस मुग्ध भाव से मुंह से यही निकला ...अनोखी राधा तेरी प्रीत! सबसे अलग , सबसे अनूठा ... ....
"  श्री राधा से "कुछ अंश !!
तुम जब बंद करते हो  बंशी  बजाना
तुम्हारा कंठ वाष्परुध  हो जाने पर
शुद्ध   निशब्दता की भांति हर बार मै
आती हूँ निःशब्द पुकार सुन
मै जानती हूँ लौट जाउंगी रात बीतने पर
पुनः अपने घर ,पुनः अपने मृत्यु में
फिर भी मै आउंगी कल रात उसके बाद
हर रात लौटूंगी तुम्हारे ही पास
आती रहूंगी जबतक मेरी देह
तुम टिका नहीं लेते मेरा जीवन
और अपना जीवन अंत होने के बाद
जब तक मै निश्चिंह नहीं हो जाती
पूरी तरह तुम्हारी शुन्यता में
.
राधा-कृष्ण की प्रेम कथा विश्व के किसी भी प्रेम कथा से भिन्न है ,जब वे एक दुसरे से मिले राधा का विवाह हो चुका था और आयु में भी कृष्ण से बड़ी थी,कृष्ण के साथ उनका सम्बन्ध ऐसा था की साथ रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी , तब भी अगर वह अपने जीवन की अंतिम सांस तक कृष्ण को चाहती रही तो स्पष्ट है कि यह सब वह बिना किसी भ्रम के करती रही . कृष्ण के साथ अपने संबंधों का आधार उसने सांसारिक रूप से एक -दूसरे के साथ रहने के बजाय कुछ और बनाया , जो इससे कही अधिक श्रेष्ठ था . यदि व्यक्ति में कामना की निष्फलता को स्वीकार करने का साहस हो यह संभव ही नहीं कि वह किसी भी स्थिति में वियोग से पराजय स्वीकार करेगा .
प्रारंभ से ही वह ऐसी कोई आशा नहीं पाले रखती है अतः कुंठित होकर निराश होने होने की भी उसकी कोई सम्भावना नहीं है . यदि वह निराश हो सकती है तो केवल इसलिए कि कृष्ण को जिस सहानुभूति और संवेदन की आवश्यकता थी , वह उसे न दे सकी . न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है ! ...जय श्री राधे राधे
साभार-"अहा जिंदगी "
 

Wednesday, August 10, 2011

"ए भारतीय युवक निंद्रा त्याग !!

(युवक!' शीर्षक के नाम  से यह  भगत सिंह का  लेख   साप्ताहिक मतवाला (वर्ष  २ अंक सं  .१६ मई १९२५)में बलवंत सिंह के नाम से छपा था ,इसकी चर्चा "मतवाला" के सम्पादकीय कार्य से जुड़े आचार्य शिवपूजन सही कि डायरी में भी मिली है )उसी के कुछ अंश !!
.
"ए भारतीय युवक ! तू क्यों गफलत कि नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है !उठ ,आँखें खोल ,देख प्राची -दिशा का ललाट सिन्दूर रंजित हो उठा !अब अधिक मत सो !सोना है तो अनंत निंद्रा कि गोद में जाकर सो रह !कापुरुषता के क्रोड़ में क्यों सोता है ?माया -मोह-ममता त्याग कर गरज उठ-!!!.
.
Farewell Farewell My true Love
The  army is on move
And if I stayed with You Love
Acoward I shall prove ;
.
तेरी माता, .तेरी परम वन्दनीय.तेरी जगदम्बा.तेरी अन्नपूर्णा  ,तेरी त्रिशुलधारिणी,तेरी सिंघ्वासिनी,तेरी शस्य  श्याम्लान्चला आज फूट फूटकर रो रही है ,क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी विचलित नहीं करती ?धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर !तेरे पित्तर भी शर्मसार हैं इस  नंपुसत्व  पर !यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो तो उठकर माता कि दूध कि लाज रख ,उसके उद्धार  का बीड़ा उठा ,उसके आँसुओं  कि एक एक बूंद की सौगंध ले!उसका  बेडा पार कर ,और बोल मुक्त कंठ से ....वन्दे मातरम!!!
.
भगत सिंह ने ये तब लिखा था जब देश आजाद नहीं था पर ऐसा लगता है की ये आज के सन्दर्भ में भी उतना ही सटीक है ..!!तब दूसरो से अपने देश को आजाद कराना था आज अपनी मानसिकता.भ्रष्टाचार ,आतंकवाद,अनाचार,आदि से अपनी मातृभूमि को आजाद कराना है ...हम अभी आजाद कहा हुए हैं ?.....हर इंसान किसी  ना किसी गुलामी में फ़सा हुआ है !!!.......काश की भगत सिंह के कहे ये शब्द हमें आंदोलित कर पावें ..जय हिंद !!!
 

Monday, August 8, 2011

क्षणिकाएं

मेरी जिंदगी में ऐसा
कुछ नहीं जो तुम्हे सुनाऊं
'जी' में मेरे आता है के
अपनी ही मिटटी गूंथकर
खुद से खुद को बनाऊं "
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
ये जिंदगी ...........!!!
छिल छिल कर छिलती है
कट कट कर कटती है
गोया, ये जिंदगी ना हुई
सुपारी हो गयी.....!!!
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
 आज की इतवार!!
कुछ यूँ गुजारी है ,
दिल की दराज़ में,
बिखरे साजों सामां को
करीने से लगा दिया है
...अब तेरी यादों को वहां
ढूढने की दरकार न होगी
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
इस जमीं के बाशिंदे
स्वप्न और एहसासों से भरे हैं
आसमाँ पे रहने वाले
इन खयालात से बिलकुल परे हैं
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~`

 

Wednesday, July 27, 2011

तुम्हारे 'शब्द'

काश 'तुम' अपने अहम् के अधीन  न होते
मेरे  'शब्द' तुम्हारे लिए महत्वहीन न होते
अब तो हमने आँसुओं का खारा सागर पी लिया है
बीता, तपता रेगिस्तान  सा  'समय'   जी लिया है
अब आए हुए तुम्हारे  'शब्द' मेरे लिए भावहीन है
शायद अब 'हम' भी अपने अहम् के अधीन हैं
~~~S-ROZ~~~

Saturday, July 23, 2011

"प्रेम चुनौती है"

 वर्षों करती आई मैं,
पूजा,अर्चना.उपासना
उच्चारण मन्त्रों का
विचारण तंत्रों का
किन्तु ना मिटा शंशय मन का
वह भाव ना जगा,अपनापन का
फिर कहीं पढ़ा मैंने "प्रेम चुनौती है"
वह पाषाण है,जिसे सीढ़ी बना लो
तो पा जाओगे उस"परमानन्द को !
कितना सच है ना ..!
मंदिर,मस्जिद,चर्च और गुरूद्वारे ..
यह सब तो बाहरी आयोजन है
मन बहलाने का मात्र प्रयोजन है
वह पिंजरा है ... जिसका पंछी
वहां नहीं, हमारे भीतर बसता है
उसे केवल हमारा प्रेम ही रसता है
~~~S-ROZ ~~


Friday, July 15, 2011

"किस बात का रोना है"

तुम जो कहते हो मै "फूल" हूँ
दो दिन में 'झर' जाउंगी
हाँ, मै 'फूल' हूँ
दो दिन में 'झर' जाउंगी
पर जाने से पहले खुशबु बन
फिजाओं में बिखर जाउंगी
तुम जो 'शाख' हो
तुम किधर जाओगे
सूखने के बाद
चिताओं में 'राख' हो जाओगे
राख तुम्हे भी होना है
खाक मुझे भी होना है
तो प्यारे .......
फिर किस बात का रोना है ....:)
~~~S-ROZ~~~

Wednesday, July 13, 2011

या रब! तेरी! इश्क की दुनिया

या रब! 
या रब! तेरी !!
इश्क की दुनिया
जितनी दिखती है
उतनी आसां है नहीं
इसकी बसती है बसी
बेहद ऊँचे कहीं ...
बसना वहां,हर किसी के
बस की बात नहीं
उसकी चाह में ए यार
हम वहां तक पहुचे
पता ही ना चला हमें
हम कहाँ तक पहुचे .
~~~S-ROZ~~~

Friday, July 8, 2011

"संबंधों का व्याकरण "

"मैं और तुम"
इन "सर्वनामों" के मध्य
व्याप्त है हमारे अपने "विशेषण"
जिन्हें हम बदलना नहीं चाहते
और ढूंढ़ते रहते हैं
जीवन की उपयुक्त "संज्ञा" !!!!
~~~S-ROZ~~~

Saturday, July 2, 2011

"काश के ऐसा होता कभी "

काश के ऐसा होता कभी
सपनो से चलता हुआ
आ जाता अपना वही
उसके प्यार कि खुशबु.....!
सांसों में बसी है अभी
लगता है जैसे,सब्जे में
मोगरे से लिपटा खड़ा है यहीं
जैसे लॉन में शमा जलाकर
रख गया है कोई ....!
काश के ऐसा होता कभी
लौ सा जलता हुआ . ..!
दिल कि तारीकी मिटाने
वो! आ जाता अभी .......!
~~~S-ROZ~~~

Wednesday, June 22, 2011

"रेल की पटरियां"

"मुसलसल चलती जिंदगी
पटरियों पर रेंगते डब्बों कि मानिंद
साथ चलती पटरियां
कहीं मिलती नहीं कभी
हमसफ़र ,हमराज है
बिछुड्ती  नहीं कभी  
रेल का सफ़र जाना  सा!पर
जिंदगी का सफ़र अनजाना सा
कहाँ  से चला याद नहीं
कहाँ है जाना पता नहीं
रेल के पहियों से दबी पटरियां
रोती भी है कभी-कभी..
पटरियों पर हुए घाव और उनकी तड़प! .
मैंने महसूस की हैं ...
उन जख्मों की तरह....
जो कुछ गैर और कुछ अपने दे गए थे कभी
जिस्म के कटे हिस्सों पर
रेल की दिशा  बदलती है, पटरियां
जिंदगी भी पटरियों पर ...
रूकती ....रेंगती.....दौड़ती ...हैं .!
आज जी चाहता है
इस रेल को छोड़...
पटरियों के साथ चलूँ
एक अनजान मंजिल की ओर
कभी ना ख़त्म होने वाले सफ़र पर !!!!
~~~S-ROZ~~~..

Wednesday, June 15, 2011

कल की रात!

कल की रात!
धरा से चन्द्रमा के  प्रणय की रात थी .....
हर रात धरा और चन्द्रमा के बीच 
चाँदनी  आ जाती थी ..
धरा यु हीं  उस चन्द्रमा  
को तकते रह जाती थी ....
चाँदनी भी इस बात   पर 
खूब  इतराती थी .............
पर कल रात चाँदनी कही खो गई
कुछ क्षणों  को 
धरा चन्द्रमा के अंक में सो गयी ...
कल की रात!
धरा से चन्द्रमा के  प्रणय की रात थी .....
~~~S-ROZ ~~~

Monday, June 13, 2011

"बुत उसूलों का"

तोडा है "बुत उसूलों का, आज फिर किसी ने
लोगों ने कहा, भागने न पाय, यही है, यही है
कहने में अक्सर ,हम क्यूँ आ जाते हैं किसी के!
खुद क्यूँ नहीं सोचते! क्या गलत है क्या सही है!
~~~S-ROZ~~~

Monday, June 6, 2011

"राम राज्य' "

‎"तब का दौर और था ,
एक 'राम' ही काफी थे
'राम राज्य' लाने को
अब के दौर और है ,
एक 'राम' काफी नहीं
राम राज्य दोहराने को"
~~~S-ROZ~~~

Tuesday, May 31, 2011

"यादों के जख्म "

सुनो ! 
तुम्हारे खयालो में गुम   
आज,गरम  पतीले से
ऊँगली जल गई 
फफोला निकल आया है
उसे मसलकर नमक लगा दूँ
म स कम ...आज !
तुम्हारी यादों के जख्म
दर्द तो ना  देंगे  ......!!
~~S-ROZ~~~

Monday, May 23, 2011

"इक ख्वाब संजोया है मैंने ,कभी वक़्त मिले तो सुन लेना"

परिंदों से पूछा है मैंने
ठौर ठिकाना तिनकों का
प्यार का आशियाँ बनाने को
कुछ तिनके तुम ले आना
इक ख्वाब संजोया है मैंने ,कभी वक़्त मिले तो सुन लेना
सच्ची है या झूठी है ,तुम खुद ही इसे गुन लेना.....
जिसमे नेह की निवाड़ होगी
प्रेम की किवाड़ होगी
होगी विश्वास की इक खिड़की
और होगी मीठी तकरार की झिडकी
इक ख्वाब संजोया है मैंने,कभी वक़्त मिले तो सुन लेना
सच्ची है या झूठी है,तुम खुद ही इसे गुन लेना.....
घर में उजाला करने को
सूरज की रेज़े ले आउंगी
चंदा की चिरौरी करके तुम
चांदनी को घर ले आना
इक ख्वाब संजोया है मैंने,कभी वक़्त मिले तो सुन लेना
सच्ची है या झूठी है,तुम खुद ही इसे गुन लेना
घर को और सजाने को
अरमानो के झालर लटकाऊंगी
आँगन की तारीकी मिटाने को
तुम बन से जुगनू ले आना
इक ख्वाब संजोया है मैंने,कभी वक़्त मिले तो सुन लेना
सच्ची है या झूठी है,तुम खुद ही इसे गुन लेना.....

~~~S -ROZ ~~~

Saturday, May 21, 2011

तुम जो हस दो एकबार .......

"दरकिनार कर चेहरे की
उदास परतों को
तुम जो हस दो एकबार
मेरे लफ़्ज जाग उठे
नज़्म भी साँस लेने लगे
धड़क उठे ग़ज़लों के दिल
सफ़्हा दर सफ़्हा
किरदार जी उठे
हर्फ़ों को मानी मिल जाये
तुम जो हस दो एकबार .......
~~~S-ROZ ~~~

Saturday, May 7, 2011

"माँ की खुशबु "("मातृ दिवस "पर सभी मित्रों को शुभकामनायें )


'पीहर' आते  ही,'माँ' जब तू  गले लगाती है  
अपने हाथों से जब तू कौर बना खिलाती है  
तुझसे 'माँ' वही पहचानी  सी  खुशबु आती है
नए घड़े  के पानी से जैसे सोंधी खुशबु आती है "
~~~S-ROZ ~~~
 

Thursday, May 5, 2011

"ये कैसा प्रेम कैसी भक्ति है?"

प्रभु ! मै तुम्हे दूर से प्रणाम करती हूँ
क्यूँ, पास आकर तुम्हारा  हाथ नहीं थामती?
पिता समान तुम्हारे  चरण स्पर्श करती हूँ 
क्यूँ,  मित्र स्वरुप  गले नहीं लगा पाती  
पता है मुझे तुमसे, मिलन का मार्ग 
क्यूँ, उस मार्ग पर चलने का साहस नहीं जुटा पाती 
भक्ति से नैवेद्य,पुष्प अर्पण करती हूँ
क्यूँ, मीत समझ प्रीत नहीं कर पाती
जीवन पथ पर चलते चलते थक जाती हूँ
क्यूँ, तब अनंत विश्राम को  तुम्हारे पास आने से डरती हूँ !
प्रभु! तुमसे ये कैसा प्रेम ,कैसी भक्ति है?
~~~S-ROZ ~~~
 
 

Tuesday, May 3, 2011

"पावं जलते हैं,"

"सुनहरे ख्वाब!!!
जो सच होते नहीं फिर भी
क्यूँ आँखों में वो पलते हैं
चलो अब लौट चले,इस
तपते इंतज़ार के सहरा से
जो चल ना पड़े तो पावं जलते हैं,
~~~S ROZ ~~~

Sunday, May 1, 2011

"गावं और बुजुर्ग "

"गावं के घर कि दीवार ढह चुकी!
अब कोई नहीं रहता वहां,
सिवाय चमगादड़ों के
पर कराहती आवाजों में
बुजुर्गों कि दुआएं
अब भी वहां गूंजती है कानो में
~~~S-ROZ~~~


Saturday, April 30, 2011

"मै सागर कि मीन,

"मै सागर कि मीन,
मेरे आंसू देखे कौन
निशि के इस कोलाहल में
सुन पाते तुम मेरा मौन "
~~~S-ROZ~~~

Tuesday, April 26, 2011

"हार गयी मैं.. "

तुमसे मिले

उस माधुर्य को एकत्र कर..

मोतियों जैसा उज्ज्वल..

सौम्य निर्मल..

ना रख पाई..

मन के किसी कोने में

अहं अभी शेष है ..

तभी उन स्मृतियों को

अंतर्मन में..

परिरक्षित ना कर पाई..

सच!आज..हार गयी मैं.. ..!!!

.

नकारात्मकता को

सकारात्मकता में

परिणत करने का

मेरा हर संभव प्रयास

असफल रहा ............

उस गगन सदृश

व्याप्त प्रतिभाओं को..

तुम्हारे शौर्य अनुसार

आंक नहीं पाई..

सच !!आज,हार गयी मैं.. ..!!!

~~~S-ROZ ~~~


Wednesday, April 20, 2011

"उम्मीद भरा इक हाथ रहे "

"लोगों की भीड़ सब ओर है
हर तरफ हो रहा शोर है
बाहर बेगानों के मेले है
अंदर हम कितने अकेले हैं"
"कुछ दिनों  पहले "बहल बहनों"(noida) के बारे में सुना और पढ़ा जिन्होंने  अपनों के गम में ६ महीनो से खुद को घर में बंद कर उसे कब्रगाह बना लिया और पड़ोसियों को इल्म नहीं .....क्या सच ,हम सभी की संवेदनाये.अपनापन,भाईचारा सब शेष हो चुका  हैं ???ऐसा आगे ना हो इसलिए
आइये हम सभी हर दिल के दरवाजे पर दस्तक दे ताकि ...
.
"घरों में  खुद को, यु ना कोई क़ैद करे
अपनों के गम में तिल तिल ना कोई  मरे  
इस जहाँ में सबको  साथ की आस रहे ,
मेरा अपना है कोई, ऐसा विश्वास रहे
हर हाथ के पास उम्मीद भरा  इक  हाथ रहे
~~~S-ROZ ~~~ 
 
 

Wednesday, March 30, 2011

"हमारी निगाहें "

अंदाज़ हम दोनों के देखने का
था कितना मुख्तलिफ
थी हमारी निगाहें
एक ही शजर पर
तुम थे देखते उसकी,
सरसब्ज़ झूमती शाखें
और मेरी नज़र थी,
उस खोखली होती जड़ पर"
~~~S-ROZ ~~~

Sunday, March 27, 2011

रूठने के भी अपने "अदब' हुआ करते हैं

 इक खामोश 'चाँद' सा दबे पावं
बेसदा,बेआवाज उसका आना
और मेरी जिंदगी में बन के ,
खुशियों के 'बादल' छा जाना
और फिर रूठ के बिन बरसे चले जाना
मेरे लिए हर नफस जीना,हर नफस मरना है
ए हवा ! जरा जाके उनसे कहना
रूठने के भी अपने "अदब' हुआ करते हैं
~~~S-ROZ~~~

Saturday, March 19, 2011

"रंग दूँ "


प्रीत का पीला, नेह का नीला
हर्ष का हरा,लावण्य की लाली
प्रेम के जल में हमने मिला ली
उस रंग से मै खुद को रंग दूँ
इसको रंग दूँ उसको रंग दूँ
अगहन रंग दूँ फागुन रंग दूँ
कार्तिक रंग दूँ सावन रंग दूँ
डगर रंग दूँ , पहर रंग दूँ
गावं रंग दूँ , शहर रंग दूँ
ये घर रंग दूँ वो घर रंग दूँ
आँगन रंग दूँ दामन रंग दूँ
मज़हब रंग दूँ सरहद रंग दूँ
मंदिर रंग दूँ मस्जिद रंग दूँ
आतम रंग दूँ मातम रंग दूँ
प्रेम के इस मनभावन रंग से
रुत के हर शय को ऐसो रंग दूँ
के मैं "मैं" ना रहूँ तू"तू" ना रहे
~~~S-ROZ~~~

Thursday, March 17, 2011

'रंग "

"हे कान्हा! बरसाने का रंग
किंचित वहां भी बरसाना
जहाँ यह निर्णय दुष्कर है,
कि यह खारापन !!!!
सागर का है या अश्रु का
रंग ऐसो पड़े उन पर
ऊर उमंग अति उपजे
प्लावित हो उनका जीवन "
~~~S-ROZ ~~`

Friday, March 11, 2011

"घीसू" कि चाँदी

"देसी ठेके पर
आज "घीसू" कि चाँदी है .....
कुछ  जानी दोस्त भी जुटे  हैं
जो कभी तकते ना थे
हों भी क्यों ना ...
आज  जो वो "बुधिया" का
आखरी जेवर....  
मंगल सूत्र भी बेच आया है ..
~~~S-ROZ~~~..
 
 

Monday, March 7, 2011

"दीदार-ए-यार"

जिंदगी के तख्ते को ...
वक़्त !,बढ़ई के रन्दे सा
छिलता रहता है...
और फिर लम्हों के
बुरादे बिखर जाते हैं .....
...दिल, पर दर्द कि कील
ठक ठक सी चुभती है ....
फ्रेम पूरी होने को है
इबादत का रंग रोगन जारी है
पर उसमे तस्वीर नहीं दिखती ,
उस फ्रेम को अभी और संवरना है
शायद,तब हसरत पूरी हो.
मेरे उस दीदार-ए-यार की
~~~S-ROZ~~~

Friday, February 25, 2011

"त्रिवेणी "एक कोशिश

त्रिवेणी(एक नई  विधा ) के बारे में गुलजार लिखते हैं:-त्रिवेणी न तो मसल्लस है,ना हाइकू,ना तीन मिसरों में कही एक नज्‍़म। इन तीनों 'फ़ार्म्ज़'में एक ख्‍़याल और एक इमेज का तसलसुल मिलता है। लेकिन त्रिवेणी का फ़र्क़ इसके मिज़ाज का फर्क है। तीसरा मिसरा पहले दो मिसरों के मफ़हूम को कभी निखार देता है,कभी इजा़फा करता है या उन पर 'कमेंट' करता है। त्रिवेणी नाम इस लिये दिया गया था कि संगम पर तीन नदियां मिलती हैं। गंगा ,जमना और सरस्वती। गंगा और जमना के धारे सतह पर नज़र आते हैं लेकिन सरस्वती जो तक्षिला(तक्षशिला) के रास्ते बह कर आती थी,वह ज़मीन दोज़ हो चुकी है। त्रिवेणी के तीसरे मिसरे का काम सरस्वती दिखाना है जो पहले दो मिसरों में छुपी हुई है।
कुछ त्रिवेणियाँ
.
ख्वाबों के बाज़ार में,ख्वाहिशों के गहने सजे दिखे ,
ज्यों ही डाला हाथ किस्मत के बटुवे में....

अपनी मुफलिसी पे हमें रोना आया "
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"काश यूँ आज का दिन ढल जाय,
उसको सोचूं तो दिल बहल जाय
.
रही बात कल की, तो कल किसने देखा है ?
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वो रोज धरती को बनाते है बिस्तर अपना ,
और फिर सर पे गगन ओढ़ सो जाते हैं ....

'गरीबी' की रजाई उन्हें इस ठण्ड से महफूज़ रखती है
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"बंद मुट्ठी कर ये समझ बैठे के ज़िन्दगी पकड़ ली मैंने
खोला तो चंद  लकीरों के सिवा कुछ भी न था"
.
क्या पता था के जिंदगी उन्ही टेढ़े मेढ़े लकीरों से होकर गुजरेगी  ...
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"दोस्त" अब ना रहे वो...'तवज्जो' देने वाले .......
फिर भी हर एक शब् ....मुझको आती है "हिचकियाँ ", ....
.
मेरे "दुश्मनों" से कह दे कोई... इतना याद न किया करें
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मेरे फलाने यहाँ, मेरा फलाना वहां
मेरे अमकाने ये ,मेरा ढिमकाना वो
.
अमा मिया ! ये बता दो तुम क्या हो ?
~~~S-ROZ~~~

 

Thursday, February 24, 2011

"तुम्हारे माथे पर कोन सा सूर्य प्रतिष्टित कर दे?'[पुष्पा भारती के नाम धरमवीर भारती का पत्र ]के कुछ अंश

आज पुस्तकों वाळी अलमारी साफ करते हुए सहसा एक पुरानी पत्रिका(ज्ञानोदय  ,जनवरी ०८ ) हाथ लगी जिसमे एक आलेख "तुम्हारे माथे पर कौन सा सूर्य प्रतिष्ठित कर दें ?(पुष्पा भारती के नाम धरमवीर भारती का पत्र )जिसे ना जाने मैंने  कितनी बार पढ़ा होगा ...आज फिर याद हो आया .
यह पत्र एक  कालजयी रचनाकार के अन्तरंग का आलोक है जिसने भारतीय साहित्य को अभिनव आकाश प्रदान किए हैं। धर्मवीर भारती के ये पत्र भावना की शिखरमुखी ऊर्जा से आप्लावित हैं.इस  पत्र में प्रेम की अनेकायामिता अभिव्यक्ति का पवित्र प्रतिमान निर्मित करती है। पुष्पा भारती को धर्मवीर भारती न जाने कितने विशेषणों में पुकारते ....मेरी सब कुछ, मेरी एकमात्र अन्तरंग मित्र, मेरी कला, मेरी उपलब्धि, मेरे जीवन का नशा, मेरी दृष्टि की गहराई',सूर्या....
पूरे पत्र को यहाँ पोस्ट करना संभव नहीं अत:   उसका एक अंश जो मुझे बहुत पसंद है लिख रही हूँ ......
"मैंने कितनी बार कहा है कि इसके पहले मैंने जो भी लिखा था वह भूमिका थी.वह खोज थी .तब तक मैंने तुम्हे पाया नहीं था -तुम्हारा अनुमान   करता था ,तुम्हारे स्वप्न देखता था,तुम्हारी खोज करता था .पर तुम मिली नहीं थी ,अब जब तुम मिल गई हो ,तभी ना मै अपने आपको पा सका हूँ .और अब सारे युग को इस बात में मदद दे सकता हूँ कि वह अपने को पाए  -अपनी
 
आत्मा खोजें ,अपने सत्य को खोजें ,अभी यह सारा आधुनिक युग आत्माहीन ,दिशाहीन,विभिन्न दिशाओं में भटकाव ,चीखता ,चिथड़े चिथड़े होता हुआ दिख रहा है -उसमे आत्मा नहीं प्रतिष्ठित हुई है -वह अपनी नियति का साक्षात्कार  नहीं कर पा रहा है -क्योंकि वो आत्माहीन है ,आत्मा के लिए हमारे यहाँ कहा गया है कि "सूर्य आत्मा जगत स्थलशच "(जगत कि आत्मा सूर्य है)
 
तभी ना उस दिन मैंने अपनी श्रृष्टि ,अपनी शक्ति,अपनी योगमाया,अपनी पार्वती,अपनी सीता ,से पूछा था "बोलो ये उँगलियाँ तुम्हारे माथे पर कोन सा सूर्य प्रतिष्टित कर दे?"और जब वह सूर्य, वह आत्मा उसके माथे पर प्रतिष्टित हो गयी तो अकस्मात्   वह सूर्या -जो विपरीत दिशाओं में भटकती घुमती थी-अपनी आत्मा पा गयी.अब मै उससे  कह रहा हूँ -सुनो सूर्या ,जो हमारी आत्मा है वही जगत कि आत्मा है जो सत्य हम पाते हैं वह सबका है ! आओ (जो आजतक समस्त संसार के ज्ञान विज्ञानं,दर्शन ,धर्म ने खोजा है उस खोज के मूल में हम अपने प्यार अपनी आत्मा ,अपने सत्य  को पहचाने !यह हमारे चरम डुबान कि ,हमारे मोतियों कि हमारी तित्ती नशीली खुशबु कि उद्दात सार्थकता है )जिसे हम पहचाने !"
आधुनिकता और आधुनिक युग के बारे में बहुत सी बातें तुमने जानी और सुनी हैं और आगे जोनोगी पर एक बात यह जननी सबसे जरुरी  है राज !कि आधुनिक  युग कि सबसे बड़ी tragedy यह है कि उसका अधिकांश ज्ञान -विज्ञानं केंद्र्च्युत है .उसका सूर्य उसकी आत्मा खो गयी है फलस्वरूप उसकी अजब-सी गति है ,जैसे धुरी से उतरा हुआ पहिया होता है न ...तेजी से चलता है ,पर हर क्षण उसकी गति ,दिशा भ्रष्ट   होती चली जाती है ,इस युग का सारा ज्ञान विज्ञानं मानों अपने केंद्र सूर्य से रहित होकर छिटक गया है या तो निरुदेश्य भटक रहा है या एक विज्ञान दुसरे विज्ञान से टकरा कर चूर चूर हो गया है .साहित्यकारों ने चिंतकों ने बार बार इसे पहचाना --तुमने कभी W.B .yeats का नाम सुना है?जिसने टैगोर  को नोबल प्राईज़   दिलाने में मदद कि थी उनकी कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियाँ ...

 "Things fall apart;The centre can not hold,

mere anarchy is loosened upon the world,

The blood drainnedtide is loosened everywhere,

The ceromony of innocence is drowned,

The best lack all conviction,

while the wrost,are full of passionate intensity...

we are closed in ,and the key is thrown,

on our uncertainity....

 
अथार्त -सब वस्तुएं छिटक रही हैं.केंद्र उन सबको  होल्ड नहीं कर पा रहा है.सारे जगत पर अनियम ,अव्यवस्था छा गयी है .खुनी लहरें ज्वार पर हैं और निष्छलता  डूब रही है,श्रेष्ट लोग आस्थाहीन हो रहे हैं और नीच लोग उत्तेजित हैं ,हम कटघरे में जैसे बंद हो गए हैं ,अनिश्चय में छोड़ दीये गए हैं और कपाट बंद हो गया है ......

Tuesday, February 22, 2011

जोगीरा सा रा रा रा ...

 ना बच्चे ना बेंच  
"ना-पट्टी ना शौचालय
ऐसा है देश का प्राथमिक विद्यालय
होए जोगीरा सा रा रा रा...
.
"मध्यान भोजन!!
लाभकारी आयोजन
शिक्षा से दूरी सौ योजन 
होए जोगीरा सा रा रा रा...
.
"देश कि प्रगति दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ी है
महंगाई कि समस्या
मुह बाए खड़ी है
होए जोगीरा सा रा रा रा
.
"मेल ,मुहब्बत सादगी
 मस्ती धूम धमाल
सारे जेवर लुट गए गाँव हुआ कंगाल 
होय जोगीरा सा रा रा रा ....... 
.
कौवा भी बोल रहा कोयल कि बोली
हंसों पर हावी है बगुलों  कि टोली
नेताओं और चोरों का एक सा अंदाज़
होए जोगीरा सा रा रा रा
.
उत्तर प्रदेश में
अँधेरा छाया है
क्या करे माया का साया है ...:)
होय जोगीरा सा रा रा रा
.
अन्धो के इल्जास में गूंगों पर अभियोग
और फैसला लिख रहे ,बिना कान के लोग 
होय जोगीरा सा रा रा रा ...
~~~S-ROZ ~~~
 

Monday, February 21, 2011

"सूरज का दर्द"

‎"सुनो! उस दिन तुमने कहा था ना !
मै सूरज हूँ, मुझे रात के दर्द का इल्म नहीं
किसी रोज़ 'रात' के छत पे आके देख!!
सच कहा था,पर क्या तुम्हे पता है?
रात के दर्द को चांदनी सहलाती तो है
मै तो खुद कि तपिश में जलती हूँ
मेरे जख्म तो कभी सूखते ही नहीं
किसी रोज़ मेरे जख्म आके देख !!
~~~S-ROZ ~~~

 

Friday, February 11, 2011

"तहरीर "

"सभी सिली तीलियाँ लिए बैठे है ..
इंतज़ार में  उस तेज़  धूप कि किरण का
 जो चली है मिस्र से अभी "
~~~S-ROZ~~~
 
फिर चुके दिन तानाशाहों के, आवाम को इतना मजलूम न कहिये
पर .......
जम्हूरियत में भी जीने को तरसते लोग,उसकी सूरत को क्या कहिये?
~~~S-ROZ~~~
 
"देखना बाँध उनके सब्र का ना बह चले
जो छेड़ा जिक्र रोटी का फाकाकशों के सामने"
~~~S-ROZ~~~
 
"रुकते नही अब हम सड़कों के हादसे देख
जम सा गया है मेरा ज़मीर भी कुछ
सड़क पर जमे उस खूँ की तरह "
~~~S-ROZ~~~
 
"काश के फिर चले वो हवाएं पूरब की,
वो सोंधी खुशबु जो आती थी हर एक गाँव से
अब तो डर है के मिट ना जाए,
हमारी तहज़ीब-ओ-तमद्दुन पश्चमी हवाओं के दबाव से"
~~~S-ROZ ~~~
...तहज़ीब-ओ-तमद्दुन =सभ्यता एवं संस्कृति

Thursday, February 10, 2011

"ज़िन्दगी "

"उससे मैंने पूछा..
कौन तू ? क्यूँ है तू ? 
उसने कहा, मै,तेरी ज़िन्दगी
कल बताउंगी  क्यूँ हूँ  मैं
 उस कल के इंतज़ार में 
बीत गए  कल परसों 
और फिर बरसो
लेकिन वो न आई
शायद वो कल आये
बताने कि वो क्यूँ है?"
~~~S-ROZ~~~

Friday, February 4, 2011

"बसंत बहार "

"मौसमों  की मंडी से, दो ही रुत, मुझे मोल मिले 
गिरते पत्तों वाला पतझड़,और पियराती बसंत  बहार
पतझड़, के  सूखे पत्ते मेरे जैसे,  वो मै रख लूंगी
बासंती पवन सुहाना, तेरे जैसा, वो तुम रख लेना"
~~~S-ROZ~~~ 
 
 
 
 
 
 
 

Tuesday, February 1, 2011

"ज़ज्बात "

मंजिल की जुस्तजू में ....
मेरी जिंदगी इक मुसलसल सफ़र है .....
जो मंजिल पे पहुचूँ तो मंजिल ही चल दे ....."
~~~S-ROZ
****************************************************
"स्याह रातों में पोछे है इसने मेरे आंसू
सिरहाने लगकर खड़ी थी जो दीवार ,
संगे मरमर के ताज से भी हसीं है ये
अपने घर की वो पुरानी खुरदरी दीवार ,
मगर,दिल में न खड़ी करना यारों इसे
...फिर आंगन में भी ये खड़ी करेगी दिवार",
~~~S-ROZ ~~~
*******************************************************
अजब हाल है दोस्तों!!!,
नेकी का तो अब वो जमाना ही न रहा
हम चुन रहे थे उनके, ढहे घर के टुकडे सहेजकर
वो देखते हमें भाग चले, हाथ मेरे 'पत्थर' देखकर" `
~~~S-ROZ ~~~;-)
*************************************************
"बरकत क्या कम हुई मेरे घर की
गमले में क़ैद बोनसाई मुस्कुरा उठी"
~~~S-ROZ~~~
************************************************
"हम दोनों  रहे अपने 'अना' के कैदी
खामिया किसी में भी ना 'कम' थी
बिछड़ते  वक़्त दिल बहुत भारी था मेरा 
और तुम्हारी आँख भी  तो कुछ 'नम' थी"  
~~~S-ROZ ~~~
 

Wednesday, January 26, 2011

"याद आता है "

"अभी का कुछ नहीं,पर बचपने का हर मंज़र याद आता है
कभी अंगना  की किलकारी  कभी वो 'दर' याद आता है
"अक्सर नम हो आती हैं आखें यु ही बैठे बिठाये  
गुज़रा ,जहाँ बचपन वो गाँव का छप्पर  याद आता है  
सयानी हो रही बेटी को ही क्या हमें  भी
वो खिलौनों का पाना  वो गुड़ियों का'घर' याद आता है
भूले तमाम देश और शहर जो घूमे  अबतलक 
मगर बचपन की हर गली का हर एक 'पहर'याद आता है "
~~~S-ROZ~~~  

Tuesday, January 25, 2011

"हे भारत के पान्चजन्य जागो "


"सुसुप्त है गदा भीम की,अब भी मोहधीन है  पार्थ  !
"हे भारत के पान्चजन्य!अब तो समझो यथार्थ !
जागो ! संस्कृति के स्वाभिमान जगाने हेतु जागो  !
जागो !भारत भूमि की गौरव  महिमा बढ़ाने हेतु जागो!
******************************************************************  
 
"हे मेरे गणतंत्र!! आज तू  देश की अस्मिता जगा दे !
शत्रु मर्दनी गरिमा लेकर,दरिद्रता,आतंक,अनाचार मिटा  दे !
'आज लगाकर निज ललाट पर तेरी रज का पावन चन्दन !
गणतंत्र दिवस के समुप्लक्ष्य में हम सब करते तेरा अभिनन्दन ! 
~~~S-ROZ~~~
 
 
 
 
 

Friday, January 14, 2011

"हे सीते !!!!'तुम' नारी जाति का 'अभिमान'

हे सीते !!
"साधा था तुमने 'शैशव'  में ही जिस'शिवधनुष' को

उसपर प्रत्यंचा चढाने का गौरव मिला'प्रभु राम' को

स्वयं  की शक्ति को समाहित कर बनी रही तुम!

उनके सन्मुख कोमल,स्निग्ध कंचन काया सहचरणी

सब सुख त्याग चली वन, संग उनकी अनुगामिनी

तुम थी उनकी 'ह्रदयदेवी' वो तुम्हारे 'प्रणयसेवी'

फिर दोनों के संप्रभुता में इतना अंतर क्यों हुआ ?

 प्रभु ने स्पर्श किया  तो 'अहिल्या त्राण' हुआ ,

फिर  तुम छू  गई तो क्यूँ 'अग्नि स्नान' हुआ ?

तुम्हारा  संयम फिर भी ना कम हुआ

अंतर की पीड़ा से भले ही आँख नम हुआ

प्रभु, थे मर्यादा पुरुषोत्तम  अपने राज्य के लिए

पर 'तुमको  को विवश किया'वनगमन' के लिए 

हे सीते! तुम फिर भी ना अविचल हुई ....

बनकर स्वालंबी जाया  तुमने 'लव और कुश '......

पाला व सबल बनाया  उन्हें बन कर्मयोगिनी

प्रभु वन आये जब साथ ले चलने अपने 'राज'

नहीं स्वीकारा तुमने उनका  रानी का' ताज '

हे पृथा!तुमने फिर  भी उन्हें नहीं  धिक्कारा!

तब दिखाया तुमने, अपना नारी 'स्वाभिमान'

सौम्यता से हाथ जोड़ हो गई धरा में 'अंतर्ध्यान'

जब तक और जहाँ तक यह धरा है 'विराजमान'

सदा सदा रहोगी 'तुम' नारी जाति का  'अभिमान'

~~~S-ROZ~~~

Sunday, January 9, 2011

"हे आदि देव


"हे  आदि  देव!
 साँझ ढलते,..तुम!!
"पश्चमी नभ के जलधि में
डूब जाते हो  ....पर !!
चन्द्रमा  की चित्रलिपि में
फिर भी जगमगाते हो ... "
कभी सदृश्य तुम कभी अदृश्य तुम
दोनों ही बिन्दुओं में हो प्रकाशक "
~~~S-ROZ~~~

Wednesday, January 5, 2011

"प्यार का पत्थर ,

"हमने हर इंसान के गुनाहों पर 
जलालतों  के पत्थर बड़े  फेकें हैं
पर क्या कभी एक प्यार का पत्थर ,
दिल के उस दरवाजे पर फेंका है,
जहाँ एक 'खुदा' सो रहा है ?
'वलियों' से सुनते आए हैं के
हर इंसान में 'खुदा' होता है ,
फिर हम क्यूँ उसके हैवानियत को हवा देते है?
उसके भीतर के खुदा को क्यूँ नहीं जगा देते है?
कही ना कही हम खुद भी गुनहगार है उसके " 
~~~S-ROZ~~~