अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Tuesday, February 1, 2011

"ज़ज्बात "

मंजिल की जुस्तजू में ....
मेरी जिंदगी इक मुसलसल सफ़र है .....
जो मंजिल पे पहुचूँ तो मंजिल ही चल दे ....."
~~~S-ROZ
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"स्याह रातों में पोछे है इसने मेरे आंसू
सिरहाने लगकर खड़ी थी जो दीवार ,
संगे मरमर के ताज से भी हसीं है ये
अपने घर की वो पुरानी खुरदरी दीवार ,
मगर,दिल में न खड़ी करना यारों इसे
...फिर आंगन में भी ये खड़ी करेगी दिवार",
~~~S-ROZ ~~~
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अजब हाल है दोस्तों!!!,
नेकी का तो अब वो जमाना ही न रहा
हम चुन रहे थे उनके, ढहे घर के टुकडे सहेजकर
वो देखते हमें भाग चले, हाथ मेरे 'पत्थर' देखकर" `
~~~S-ROZ ~~~;-)
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"बरकत क्या कम हुई मेरे घर की
गमले में क़ैद बोनसाई मुस्कुरा उठी"
~~~S-ROZ~~~
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"हम दोनों  रहे अपने 'अना' के कैदी
खामिया किसी में भी ना 'कम' थी
बिछड़ते  वक़्त दिल बहुत भारी था मेरा 
और तुम्हारी आँख भी  तो कुछ 'नम' थी"  
~~~S-ROZ ~~~
 

4 comments:

  1. सरोज जी,

    उम्दा शेर.....बहुत खूब.....दीवार वाला सबसे अच्छा लगा|

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  2. not Emran its Imran :-)

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  3. वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा

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