अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Thursday, December 22, 2011

""मुला देसवा होई गवा सुखारी,हम भिखारी रही गए "

आज शाम इवनिंग वाक् करते दुर्गापूरा(जयपुर)वाली सड़क पर निकल गई वहां देखा मैंने मेट्रो निर्माण में लगे उन दिहाड़ी मजदूरों को शाम के धुंधलके ठिठुरते ठण्ड में सड़क किनारे पास पड़े पुराने टायर ट्यूब ,रद्दी गत्ते बटोर कर आग तापते हुए, दिनभर की मजूरी से थके लोग अपनी थकान को उस आग के तपन में झोकते हुए... उनमे से फिर कोई एक बीडी निकलता है और उस अलाव से सुलगा कर एक कश खीच कर दुसरे को बढा देता है, एक बीडी साझा करते और अपने फ़िक्र का धुआं बाहर निकालते..कैसा तो सकून देखा मैंने उने चेहरे पर ...एक कश भीतर और धुएं में सारा दर्द बाहर और चेहरे पर चमक उनमे से एक गीत गुनगुनाता है .........................!

"महँगी के मारे बिरहा बिसरिगा,भूली गई कजरी कबीर

मुला देसवा होई गवा सुखारी ,हम भिखारी रही गए "

 
और बाक़ी सब भी उसका साथ देते गाने लगते हैं ................!

महंगाई के मारे बिरहा बिसरिगा,भूली गई कजरी कबीर

देखी के गोरिया के उमडल जोबनवा.उठे ना करेजवा मा पीर"

और सभी के चेहरे पर एक सुकुन भरी मुस्कान है .....एक अजीब सा एहसास हुआ कुछ जलन भी हुई ऐसा सकून हमें क्यूँ नहीं मिलता .....काश वो सुकुन भरा कश खीचने गुस्ताखी कर अपनी फ़िक्र मैं भी उनकी मानिंद हवा में उड़ा पाती ,पर क्या वो सकून मेरे चेहरे पर आ पायेगा?...शायद नहीं ...मैंने दिनभर बदनतोड़ मेहनत जो नहीं की है !!!

Tuesday, December 20, 2011

"कुछ मुख्तलिफ एहसास"

 आज ये दिल गज़ब जिद पे अड़ा है
जो खोई हर चीज है उसे ढूंढे पड़ा है ..:)
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गम का .....
तपता रेगिस्तान तुमने जिया
आँसुओं का.....
खारा समंदर हमने पिया
इस तरहा ...
हम तुम में जिंदगी ज़ज्ब होती रही
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बालिश्तों से नापते रात कट ही जाएगी
दिल को यकीं है हसीं सुबह जरुर आएगी
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उसे ये जिद है,के मैं पुकारूँ उसे
मुझे ये तकाजा,के वो बुला ले मुझे
इसी तसलसुल में रात बेहीस हुई जाती है
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एक समन्दर आग का
और मोम की नाव
पार लगे किस हाल बन्धु
नाव लगे किस ठावं
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पल भर का
आना भी........
कैसा आना प्रीय .!
हर आना ............
अपने में लिए होता है ......
लौट जाना .............!
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इक जंग वाबस्ता है 'खुद' का 'खुद' ही से
'औरों' के हमलों का फिर क्या जवाब दें
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तुम्हारे दिखाए सब्जबाग की अब आदत रही नहीं
अब सर्द रातों में सूखे पत्तों का सुलगना ही भाता है
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ये गुब्बारे भी .........
.......क्या खूब होते हैं
जरा सी हवा में .......
...................अर्श को
आशियाँ समझ लेते हैं
... ...........गोकि उन्हें भी
फ़ना फर्श पर ही होना है
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तेरी जुस्तजू में ....!
मेरी जिंदगी इक मुसलसल सफ़र है
....और मंजिल है तू .........!
जो मंजिल तक पहुचूँ तो मंजिल ही चल दे ....."
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शब्दों के कोलाहल से
मौन के कोलाहल तक कि यात्रा
परम आतम कि,प्रथम अनुभति है
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ना हो जाएँ जहाँ में सियार हावी
शेरों को अब मांद से निकलना होगा
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हमसे है अव्यवस्था ...
अव्यवस्था से हैं "हम" ..
फिर भी गुरेज ,के,
हमारे देश में सबसे
"व्यवस्थित अव्यवस्था" है "
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तू कहे तो इस वतन के सदके अपनी जाँ भी दे दूँ
पर ये खूँ बेजां नालियों में बहे,ये गवारा नहीं मुझे
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हैं वतन परस्त हम भी,पर दिल कुछ उलझ सा जाता है
वतन के रहनुमाओं ने,बाँट जो रखे हैं दायरे अपने अपने
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माना के जो बीता वो रोज़ बीतेगा तुझपर
पर जो टूटा था वो रोज़ टूटता है मुझपर
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रात कि ख़ामोशी लोरी सुनाने लगी
ए ख्वाब ठहर मुझे नींद आने लगी
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उफ़!! नामुराद आज ये "दिल" क्यूँ इतना खाली खाली सा है
ख़ुशी की उम्मीद नहीं,"गम" को भी पाला मार गया लगता है
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हर नफस घोलती रही अपना वजूद जिनके वजूद में
वो ही आज पूछते हैं "रोज़" बता तेरा वजूद क्या है
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~~~S-ROZ~~~~
 

Tuesday, December 13, 2011

"तुम्हारे दो शब्द "

शब्दों के हेर फेर से ,
चाहे कुछ भी लिख लूं
पर तुम्हारे दो शब्द
देते हैं अर्थ मिटटी का
जिसमे सूखे बीज भी ,
अंकुरित हो उठते हैं
और अनायास ही,
आने लगती है
अनखिले फूलों की सुगंध !!
~~~S-ROZ~~~

Thursday, December 8, 2011

"माँ" के मायने "

ट्राफिक सिग्नल पर...
फूल,खिलौने बेचते बच्चे
कार के शीशे पोछते बच्चे
अपने बच्चों की मानिंद
अपने क्यूँ नजर नहीं आते
शायद..,एक"माँ" होके भी
मुझे"माँ" के मायने नहीं आते
~~~S-ROZ ~~~