"पहले के जैसे लोग थे,वैसे सामान भी हुआ करते थे
त्योहारों पर लोग क्या दिलखोल कर मिला करते थे!!
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मिटटी के चराग कतारों में क्या खूब जला करते थे
मचलती सी लौ फ़ना होने तक रौशनी बिखेरती थी!!
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अबके "बिजली के बुलबुले' और लोग एक से हो गए हैं
चेहरे पर नकली हसी और रश्क लिए गले मिला करते हैं
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एक 'स्विच' की मोहताज़ ये बुलबुलें फ़ना नहीं होती
बेजान सी रौशनी देते हुए हर साल यही जला करती है" !!
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं..
ReplyDeleteसरोज बहन सही कहा अगर पहले के जेसे लोग और पहले के जेसा शुद्ध सामन मिल जाए तो बस मन,वचन,कर्म के अलावा वातावरण और खाध्य पदार्थ भी शुद्ध हो जाएँ आपने भुत अच्छी प्रस्तुती की हे मुबारक हो. अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
ReplyDeleteखूब चित्रण किया है बीस वर्ष पहले की दीपावली का..वर्ड वेरीफिकेशन..
ReplyDeleteआपको भी दिवाली की शुभकामनायें .... सादर
ReplyDeleteसरोज जी,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना .....बिजली के ब्लाबो की उपमा बिजली के बुलबुले....वाह
आज और कल पर एक व्यंग्य समेटे है आपकी रचना......कुछ मात्रात्मक गलतियाँ दिखीं हो सके तो दुरुस्त कीजियेगा.....जैसे मिट्टी, चिराग, हँसी |
आपको और आपके प्रियजनों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें......
sahi likha hai aapne
ReplyDeleteab to har parv matr aupcharik bankar rah gaya hai