अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Friday, May 31, 2013

"ग़ज़ल "

जिंदगी में जो पूरा है
दरअसल वो अधूरा है !

ताउम्र जद्दोज़हद क्यूँ
ये जिस्म माटी-धूरा है !

हौसला हो बुलंद गर
वो पत्थर नहीं चूरा है !

चीन दिखता चीनी सा
असल में कन-खजूरा है !

जिसकी अपनी सोच नहीं
वो आदमी नहीं ज़मूरा है !

जिन में वो नहीं होता roz
वो गीत मेरे लिए बेसुरा है !
~s-roz~
 

Thursday, May 30, 2013

"गृहस्थी का कांवर "

परिणय मंडप में धरे दो कलशों में
बराबर ,भरे गए मधुर संबंधों के सभी तत्व
प्रेम, मैत्री, स्नेह और विश्वास
और इससे तैयार हुआ,गृहस्थी का कांवर
यात्रारंभ में जब कंधे की बारी आई
तुम्हारे अहम् ने ...........
उसे अपने कंधे पर रखना स्वीकारा
मैं पथगामिनी ,तुम्हारी सहचर
साथ चलना बदा था
सभी ऋतुओं अवरोधों को पार करते
शिवालय तक !!
प्रारंभ, सूर्योदय की स्निग्ध लालिमा लिए
थकन से दूर ,वानस्पतिक सम्पदा से पूर्ण
उत्सव से भरा अरण्य था !
चलते समय ..........
आगे के घट का छलकना तुम्हे दिखता था
तुम संभल जाते
पीछे का घट ,जो मेरा था
जाने कितनी बार छलका
किन्तु ,वह अदीख था तुम्हारे लिए
जितना छलकती
तापस भूमि पर पड़ते ही ,वाषिप्त हो जाती
और मेघ बन तुम्हारे शुष्क अधरों पर बरस जाती
और नेत्र कोरों के जल के आशय से
उस घट को पुनह भर देती
कारण, कांवर में
दोनों घटों में संतुलन आवश्यक था !
वर्षा ऋतू में जल से भरे मार्ग में
जाने कितनी बार पाँव फिसला तुम्हारा
हर बार कांवर के साथ साथ
तुम्हे संभालते हुए मैं स्वयं आहत हो जाती !
शीत ऋतू में ,तुम्हारे ठिठुरते देह पर
अग्रहायणी की प्रातः धूप सी
तुम्हारे देह पर पसर जाती !
तुम्हारे नंगे पाँव आहत न हों इसलिए
कंटीले मार्ग पर
पतझड़ की मरमरी पत्तियों सी मार्ग पर बिछ जाती !
किन्तु इन सब से अनभिग्य
तुम यदा कदा विस्मृत भी हो जाते हो कि
साथ तुम्हारे मैं भी हूँ ........!
जीवन के इस पड़ाव पर
तुम्हारे मुख पर सूर्यास्त सा मलिन भाव
नहीं देखा जाता ,
यह कांवर तुम्हे बोझ न प्रतीत हो
अतः कुछ देर को,यह मुझे दे सकते हो
किन्तु ओह्ह !! तुम्हारा अहम् !!
प्रिय ,देखो शिवालय की घंटियाँ
सुनाई दे रही हैं !
तुमने अबतक ........
अपने पुरुषत्व को मेरे स्त्रीत्व से मिलाया है ,
क्या ही अच्छा हो कि ......
तुम अपने भीतर के छिपे स्त्रीत्व को
मेरे भीतर के छिपे पुरुषत्व से मिला दो
क्योंकि,शिवालय में बैठे उस अर्धनारीश्वर को
यह जलाभिषेक तभी पूर्ण एवं सफल होगा !!
~s-roz~

Thursday, May 23, 2013

ऐ चाँद ...........(ग़ज़ल )


उतर आओ आसमां से चांदनी के ज़ीने से
तक रहें हैं हम तुम्हें झील के सफीने से !!

झिलमिलाती झील भी आफ़रीं है उस पे
झलक रहा है चाँद निहायत करीने से !!

शब्-ऐ-आख़िर आई है अब मान भी जाओ
जो रूठे हो मुझसे बीते सावन के महीने से !!
 
तुझमें डूबकर न उबर सके तो कोई गम नहीं
मरना बेहतर है तेरे बिन यूँ घुटकर जीने से !!

तेरी हथेलियों में भरी है इश्क़ की चांदनी
कौन रोक सकता है मुझे जी भर के पीने से !!

आब -ऐ -जम-जम है यूँ ज़ाया न करना "roz"
भिगो लेना दामन उसके माथे के पसीने से !!
~s-roz~

Saturday, May 18, 2013

ये शहर ...(ग़ज़ल )


 क्या हुआ सुनने को खरी-खोटी देता है
ये शहर ही है,जो पेट को रोटी देता है !

जाकर मिल में तुम लाख बुनो कपड़े
ढकने को जिस्म, सिर्फ लंगोटी देता है !

मेहनतकश को यहाँ नहीं कुछ हासिल
गर बेचो ईमान,तो रक़म मोटी देता है !
...
चौकाचौंध देख, ज्यादा हसरतें न पाल
पसारने को पाँव, चादर छोटी देता है !

यहाँ गरीबों को रोटी,मयस्सर हो न हो
अमीरों के कुत्तों को,चांप-बोटी देता है !

आसां नहीं पुर-सकूं जीना यहाँ "Roz"
ज़िंदा रहने को,रोज़ नई कसौटी देता है !
~S-roz~

Tuesday, May 14, 2013

"उनके माथे का अरक़,ढलता है टकसालों में"

अनाज बोया गया,दल्ले उगे
खेत सींचा गया ,ख़ुदकुशी उगी

चूल्हे पे रोटी नहीं ,अक्सर ,उठता रहा धुंआ

मुफलिसी की बारिश में सील जाता था ईधन

बच्चों के चेहरों पर ,भूख करती थी नर्तन

उनके माथे का अरक़,ढलता रहा टकसालों में

सिक्के, नाचते रहे अमीरों के पंडालों में

वक़्त अब बदल रहा है ,उनकी जमीं पर

अब अनाज नहीं ,इमारते उगती हैं

उनके हाथों में बीज और खाद नहीं

रेता बजरी के तसले होते हैं

नहीं बदला कुछ तो वो ये के
.......
अब भी उनके माथे का अरक़,
ढलता है टकसालों में !
~S-roz

Sunday, May 12, 2013

"हादसे की रिपोर्ट"

ए सी के ठन्डे बंद कमरे में
जब उबन होने लगी
तो खिड़की के पास आकर
बाहर का नजारा देखने के लिए
पर्दा हटा दिया
क्या देखती हूँ कि
लॉन में .....
बैजंती के कुछ खिले और अधखिले फूल
और कुछ कलियाँ
जो सुबह डाल पर इठला रही थी
...
अभी सूरज की तल्ख़ धूप
और धुत हवसपरस्त लू ने
उन्हें बे आबरू कर जलती जमीन पर
लाशों की मानिंद गिरा दिया है
हवा किसी गीदड़ सी उन लाशों को
पंजे मार कर सूंघ रही है .........!
मैं झट सहम कर
खिड़की को परदे से ढक देतीं हूँ
और ज़ेहन से यही आवाज आती है
"थैंक गॉड" उनमे मैं नहीं
मेरा अपना कोई नहीं था !
कुछ ही देर में .....
ए सी की ठंडक ने
बाहर के जलते हादसे को भुला दिया है
और मैं हाथ में रिमोट लेकर
टी वी के हर न्यूज़ चेनल पर
हादसे की रिपोर्ट देख रही हूँ !
~S-roz~

Tuesday, May 7, 2013

"चौकीदार "

इस मोहल्ले में
रात गए
गली का चौकीदार
जागते रहो ! जागते रहो !
रोज चिल्लाता है ......
घर के लोग
नीम सी नींद में सुनते हैं
और फिर तसल्ली से
करवट बदल
और गहरी नींद सो जाते हैं
... मैं समझ नहीं पाती कि
आखिर ,वो खुद तो जाग रहा होता है
फिर किसको
जागते रहने की चेतावनी देता है ?

ठीक उसी तरह
जैसे कलम का चौकीदार
जागो ,जागते रहो
लिखता रहता है ......
और पढने वाला पढ़कर
पन्ने पलटकर
तसल्ली से
रोजमर्रा के कामों में जुट जाता है
मैं समझ नहीं पाती कि,
आखिर कलम का चौकीदार
किसको जगाने के लिए लिखता है ?
~S-roz~

Thursday, May 2, 2013

"झुर्रियों वाले हाथ जब धरोगे मेरे झुर्री वाले हाथ पर "

कहते हैं ..............,
सपने तो सपने ही होते हैं
क्या पता ,पूरे हो न हों
पर मेरा एक सपना है
जो सच और शीशे की तरह साफ़ है
और वो है तुम्हारा
हर सुबह चाय की प्याली ख़त्म करने के बाद
और रात को सोने से पहले
अपने झुर्रियों वाले हाथ का
मेरे झुर्रियों वाले हाथ पर धरना
और ऐसा करते तुम्हारी नजरें
मेरी नजरों पर नहीं ,हाथों पर होती हैं
जैसे उस हाथ के स्पर्श से कुछ महसूस करना चाहते हो
या कुछ कहना चाहते हो पर कह नहीं पाते
या वो साथ देना चाहते हो
जो वाजिब वक़्त न देकर बेजां किया
अक्सर ,वो आधी रात तक बैठक से ठहाकों का उठना
और मेरा बिस्तर पर खिड़की से आती चांदनी में घुलते रहना
मेरी नींद भी तो तुम्हारी सगी थी
मुझे छोड़ तुम्हारी महफ़िल में कहकहे लगाती
और रात के तीसरे पहर कभी भूले से नींद भी आ जाती
तब तुम्हारा प्यार से उठाकर कहना
यार.जरा दोस्तों के लिए कॉफ़ी बना दो
और उनके सामने छाती चौड़ी कर
उन्हें कॉफ़ी पिलवाना !!
ऊपर वाले की फज़ल से तुम्हारी नौकरी भी एसी कि
आधे से ज्यादा वक़्त बाहर ही रहते !
माँ बनने की पहली ख़ुशी
तुम्हारे संग साझा करना चाहती थी
अफ़सोस नहीं कर पाई !
वो हमारी पहली होली
तुम्हे याद है ?
कहकर गए ,अभी सब से मिलकर आता हूँ
और जब आये तब तक खेल ख़त्म हो चूका था !
खैर ....भूलना चाहती हूँ सब कुछ
और अब तुम्हारे हाथों का स्पर्श पाती हूँ तो
कुछ याद भी नहीं रहता ........
और धर देतीं हूँ अपना दूसरा हाथ तुम्हारे हाथों पर
तुम भी समझ जाते हो
और अपनी प्रेम से लबरेज़ नजरें
ऊपर कर लेते हो
शायद परिपक्व प्रेम
सिफ मौन समझता है ...
मेरा सब कुछ भूलना
लाज़मी भी है ......क्योंकि ,
तुम्हारा वो प्रेम अंगुलिमाल था
और ये प्रेम वाल्मीकि .....!!!
~s-roz~