डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं
विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....
Monday, June 13, 2011
"बुत उसूलों का"
तोडा है "बुत उसूलों का, आज फिर किसी ने लोगों ने कहा, भागने न पाय, यही है, यही है कहने में अक्सर ,हम क्यूँ आ जाते हैं किसी के! खुद क्यूँ नहीं सोचते! क्या गलत है क्या सही है! ~~~S-ROZ~~~
विज्ञापनों की धार में बहते चले गए।
ReplyDeleteजुगनू को आफताब वो कहते चले गए॥
वाह !!आज के सन्दर्भ में सटीक कटाक्ष डॉ. डंडा लखनवी जी ..आभार!
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