काश 'तुम' अपने अहम् के अधीन न होते
मेरे 'शब्द' तुम्हारे लिए महत्वहीन न होते
अब तो हमने आँसुओं का खारा सागर पी लिया है
बीता, तपता रेगिस्तान सा 'समय' जी लिया है
अब आए हुए तुम्हारे 'शब्द' मेरे लिए भावहीन है
शायद अब 'हम' भी अपने अहम् के अधीन हैं
~~~S-ROZ~~~
अहं....अधिकतर रिश्तों के टूटने की पहली वजह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है ,आपने...सच्चाई बताती रचना .
गहन अभिव्यक्ति
ReplyDelete.
ReplyDeleteआदरणीया सरोज जी
नमस्कार !
आपके ब्लॉग पर अच्छी रचनाएं हैं , आ'कर बहुत अच्छा लगा ।
प्रस्तुत रचना तुम्हारे शब्द के लिए भी आपको साधुवाद !
तपता रेगिस्तान-सा समय नया , अछूता और व्यापक बिंब है…
आपकी सभी रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
निधि जी../संजय भाष्कर जी/राजेंदर स्वर्णकार जी आप सभी आदरणीय जानो का ह्रदय से आभार!!
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