अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Friday, November 20, 2015

देखना,अब बदलेंगी लोकगीतों की दास्ताने

परिंदे औ परदेसीयों के 

दूर वतन जाने पर 
दुआओं की गठरी बाँध 
घर की चौखट पर 
बैठी वजूद का 
मिटटी होना लाज़मी होता 
आँखों के बहते आंसू 
उस मिटटी को सींचते रहते 
जिनमे.... गाहे-बगाहे 
उम्मीदों के सब्ज़े उग आते 
लोकगीतों की दास्ताने
उनसे ही आबाद थी

मगर अब ..........हमवतन ही 
दुआओं की छतरी लिए 
सुबह के निकले परिंदे औ बाशिंदे 
वाजिब वक़्त ......
जब घर को लौट नहीं आते 
बजाये आने के उनके
बजती है फोन की घंटी 
तब .....चौखट पर 
अपसकुन बुहारती 
बेसब्र आँखे पथरा जाती हैं 
अब उन आँखों से 
अश्क तर नहीं होते
उन पथराई वजूदों पर 
कोई सब्ज़ा भी नहीं उगता 
बस इक आह: होती है 
के, कोई तो आये 
और उन्हें मिटटी कर दे 
देखना ......
अब बदलेंगी लोकगीतों की दास्ताने 

~s-roz~

Sunday, October 18, 2015

जंगल राज


इस शहर के लोग 
जो खुली आँखों से सोतें है 
और बंद आँखों से जागतें है 
अब मुर्गे की बांग से नहीं 
मज़हबी बांग से जागकर
अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं

ऐसे आलिम इंसानों के 
कानून के क़ायेदे.. फ़ाख्ता हैं 
इस शहर में अब तो....
जंगल राज ही नाफ़िज़ हो 
कम से कम...
उनके अपने क़ायदे कानून तो होते हैं ?

गर कोई सैलाब आये तो 
शेर, गाय, बकरी और चीता 
गिद्ध, गिलहरी सांप और तोता 
साथ एक ही नाव(नोवा) में होते हैं

अँधेरे में जब सहम जाते हैं 
बया के घोंसले के चूज़े 
तब वन के जुगनू जगमगाकर 
उन्हें रौशनी का हौसला देतें हैं

गर पेट भरा हो शेर का तो 
वो कभी हमला नहीं करता
सभी परिंदे और चरिंदे
अमन के गीत गाते हैं

कोयल अपना ठिकाना नहीं बनाती 
उसके अंडों को भी कव्वे 
अपनी जात का ही समझ 
अपने परों की गर्मी देते हैं 
इस शहर में जंगल राज ही नाफ़िज़ हो 
कम से कम......
उनके अपने क़ायदे कानून तो होते हैं
?
~s-roz~

Wednesday, February 18, 2015

"तुम तो आकाश हो " सरोज सिंह के काव्य संग्रह का विमोचन

रेज़ा-रेज़ा सारे हर्फ़

मेरे लफ़्ज़ों में .....

लफ्ज़ मानी में

और मानी ...

तेरी कहानी में

तब्दील हो जाते हैं

मेरा ....फिर कुछ

मेरा नहीं रह जाता !!.......... 

 

सरोज जी की लिखी ये पंक्तियाँ पढ़ते वक़्त कभी नहीं सोचा था कि लफ्ज़ मानी में और मानी कहानी में कैसे तब्दील हो जाते हैं। लेकिन इनका कहानी में ही नहींएक पूरे आकाश में तब्दील होना कवयित्री के शब्दों को एक नयी गहराई से सोचने पर मज़बूर करते हैंसरोज जी की यही खासियत उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करती है और वह चुपचाप अपना एक नया भूगोल बनाती बिगाड़ती रहती हैं।

 

मौका था सरोज जी के प्रथम काव्य संग्रह "तुम तो आकाश हो" के लोकार्पण काआदतन समय से पहले पहुँचने की व्यग्रता से वशीभूत मैं यहाँ भी पहले ही पहुंचामंच सज चुका था,कुर्सियां करीने से लगा दी गयी थी और उनके ठीक पीछे चमक रहा था बड़े बड़े शब्दों में सबको अपनी विशालता में समा लेने की उत्सुकता में संग्रह का शीर्षक "तुम तो आकाश हो" . कहते हैं कि कुछ दृश्य विहंगम होते हैंकुछ सुन्दरऔर कुछ ऐसे होते हैं जो याद बनकर आपसे लिपट जाते हैंफिर आप चाहकरभी उनसे अलग नहीं हो पातेकुछ ऐसा ही दृश्य यह भी था,नीला आकाश ……… विशाल और उन सबके ऊपर मुकुट बनकर उभरते शब्द "तुम तो आकाश हो" "तुम तो आकाश हो" "तुम तो आकाश हो"....... और फिर सरोज दी का ही एक जुमला अचानक ही मानस पटल पर थपकी दे गया "डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँफड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं" और मैंने खुद से सिर्फ इतना ही कहा , "देखो आज कृतियाँ सांस लेने लगी हैं। "और हाथों में थमी किताब की धड़कन बढ़ गयी थी।

इन सब बातों में समय कहीं थोड़े ही न रुकता है रुका भी नहीं और कुछ ही देर में लोगों का आना शुरू हो गया. कई चेहरे परिचित थे तो कुछ अपरिचित भीभला सबको थोड़े ही जानता हूँलेकिन जानने की यह प्रक्रिया अगर लगातार चलती रहे तो अपने आपको धन्य समझूंगा। सभा की मुख्य अध्यक्षता जानी मानी कथाकार मैत्रेयी पुष्पा जी ने कियाअभी तक उन्हें सिर्फ पढ़ा थासामने देखना और सबसे महत्वपूर्ण उनके आशीर्वाद से धन्य हो जानामेरे लिए एक उपलब्धि है। "दुनिया इन दिनों" के प्रधान संपादक और कवि सुधीर सक्सेना जी मुख्य अतिथि थे तो विशिष्ट अतिथि और सरोज दी के साहित्यिक गुरु सिद्धेश्वर जी की उपस्थिति काव्य प्रेमियों और उभरते कवियों के लिए प्रेरणा से कम न थी. दूसरी तरफ साइकिलिस्ट और बम शंकर टन गणेश के लेखक राकेश सिंह की सम्मानीय उपस्थिति वर्तमान परिवेश की कुछ चिंगारियों के आग में तब्दील होने की कहानी यूँ ही बयां करती जाती थीं और संरक्षिका दल उस आग को बड़े ही करीने से छांटकर फूलों में तब्दील कर देता था.

कल रहूँ … न रहूँ/फ़र्क नहीं इसका/आज हूँ या नहीं?……… एक सवाल और जवाब अनेक, लेकिन एक नारी अगर यही सवाल खुद से करे तो उसके मानी बदल जाते हैं, युवा कवयित्री इंदु सिंह ने अपने इन शब्दों को जैसे खुद में पिरो दिया था और मंच की संचालिका के कार्यभार को एक छुई मुई की तरह नहीं बल्कि शब्दों के मुखर रूप में प्रस्तुत किया और सारा आकाश सिमट कर एक हो गया, पुस्तक में किये गए सवालों को चर्चा के माध्यम में पिरोने का यह जटिल कार्य इंदु जी ने बड़ी ही सहजता से किया और अपने शब्दों को सबके सामने प्रस्तुत करते हुए यह कहने में कहीं से भी गुरेज नहीं किया कि "नहीं होना चाहती/मैं पौधा छुईमुई का/कि कोई भी बंद कर दे/मुझे मेरे वजूद में". चर्चा की शुरुआत सरोज जी ने अपनी कुछ कविताओं के पाठ से शुरू किया, संग्रह की ही कविता ""जारबंद" का पाठ करते हुए जहाँ सरोज जी ने एक पीडिता के कष्ट को सबके सामने रखा, और संकेत में ही सही लेकिन मौजूदा समाज में सामजिक पतन के एक ज्वलंत प्रश्न को प्रस्तुत किया तो वहीँ चौखट कविता का पाठ करते हुए कवयित्री ने नारी की उड़ान को बड़ी ही प्रभावशाली रूप में सबके सम्मुख रखा.

"माँ ! अबके घरों में चौखटें नहीं होती 
इसलिए अब वो मजे से लांघ जातीं हैं एवरेस्ट भी "
और फिर माँ की गहरी चिंता,
हलकी मुस्कान में बदल जाती है !!" – चौखट कविता की यह आखिरी पंक्तियाँ आज भी वैसी ही मेरे जेहन में ज्यों की त्यों हैं, मुझे समझ में नहीं आता की सरोज जी के यह शब्द प्रश्न करते हैं या उत्तर देते हुए माँ को एक सांत्वना देते हैं, और इसी कविता पर किया गया मेरा खुद का एक पुराना प्रश्न उभर कर खड़ा हो जाता है "लेकिन यह भी एक सच है कि चौखटें अब घरों से निकल कर चौराहेंमोहल्ले,नुक्कड़ और हर जगह फैलकर एवरेस्ट सी ऊँची बन गयीं हैंहाँ सच है कि आज वो मजे से लाँघ जाती है एवरेस्ट को भीलेकिन घरों से निकालकर चौराहेनुक्कड़ों और मोहल्ले में फैले इन एवरेस्टों को वो हर पल अपने अंदर जीती हैऔर तोड़ देना चाहती है चौखटों के उभर आये इस पहाड़ कोलेकिन अभिशप्तता इतनी आसान कहाँ होती है? कम स कम पहले घर की चौखट के बाद कुछ नहीं होता था,लेकिन अब....... अब तो अदृश्य सा यह साथ साथ चलता है." इसमें कोई दो राय नहीं कि "तुम तो आकाश हो" मौजूदा समाज में स्थापित कई स्थापत्यों पर करारा प्रहार तो करता ही है साथ ही साथ मुखर होकर संवाद के भी नए सोपान तलाशता है. मुख्य अतिथि श्री सुधीर सक्सेना ने काव्य संग्रह के शीर्षक  एवं कविताओं पर बड़ी बारीकी से चर्चा की एवं कहा कि
 सरोज सिंह की कविताएँ पढ़ते हुए बार-बार ये महसूस होता है कि इन कविताओं को उन्होने सिर्फ कल्पनाशीलता से नहीं लिखा बल्कि इनको स्वयं जिया है। इन कविताओं में कोई बनावटीपन नहीं है,बड़बोलापन नहीं है। उनके अनुभवों की सच्ची और सहज अभिव्यक्ति है।  साथ ही उन्होंने काव्य कला को और माझने  की सलाह भी दे डाली. चर्चा के इसी क्रम में विशिष्ट अतिथि और कवि सिद्धेश्वर सिंह जी ने वर्तमान परिवेश में भाषा ज्ञान और विलुप्त होती साहित्यिक रचनात्मकता और संस्कृति पर अपनी चिंता जताते हुए यह कहने में गुरेज नहीं किया कि "तुम तो आकाश हो" आने वाली पीढ़ी के लिए एक साहित्यिक दस्तावेज है और ऐसे दस्तावेजों का संग्रह निरंतर होना चाहिए, चूँकि सरोज जी सिंह जी की शिष्या भी रह चुकी हैं और एक गुरु के लिए यह गर्व का समय था और इस करा में उन्होंने पुरानी यादों को ताजा भी किया, सबसे अंत में सभा की अध्यक्षा मैत्रेयी पुष्पा जी ने समकालीन स्त्री लेखन पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इस समय का स्त्री लेखन काफी बेबाक हुआ है। लिखने के ख़तरे कम हुए हैं। फेसबुक जैसे नवमंचों ने इस ख़तरे को और कम तो किया ही हैसाथ ही लिखनेछपने औैर पाठक तक पहुँचने की प्रक्रिया आसान भी किया है। 

संदीप सिंह "साहिल" के काव्य पाठ ने जहाँ सबका ध्यान आकृष्ट किया वहीँ कवयित्री निरुपमा सिंह जी ने उन्हें कविता की नयी आवाज़ भी कहा. चर्चा के अंत में धन्यवाद ज्ञापन सरोज सिंह के पति एवं सीआईएसएफ के सीनियर कमांडेंट पी.पी. सिंह ने किया !

अंततः लफ़्ज़ों का मानी और मानी का कहानी में तबदील होने की यह कहानी कुछ कम यादगार ना थी और आने वाले समय में एक नया आकाश नए सूर्य के साथ कई कहानियों के पूर्ण होने के इंतज़ार में एक नए भूगोल के निर्माण में पुनः लग चूका है.

 

रिपोर्ट - नीरज

Sunday, January 18, 2015

मौन

जब-जब मैं तुम्हे 
बंद आखों से निहारती हूँ 
हमारे बीच का व्याप्त मौन 
शांत प्रकृति की ध्वनियों की तरह 
तरंगित हो उठता है 
जो विचलित नहीं करता 
बल्कि उस मौन को और भी गहरा देता हैं 
फिर मौन से भरा सारा आकाश 
मुझे घेर लेता है 
जो तुम्हारे होने की अनुभूति है 
क्यूंकि ...............
तुम तो आकाश हो न ?

~s-roz~