अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Wednesday, July 31, 2013

बावरी, घुंघुरू बंधे मीरा के वो पाँव खोजती है /ग़ज़ल

प्यासी धूप, भरने को घूंट कोई ठांव खोजती है
नादां, तपते सहरा में बादल का गाँव खोजती है !

बेईमानों की बस्ती में... ईमानदारी की उम्मीद
मूरख, दरिया-ए-आग में,मोम की नाव खोजती है !

तरीके अब और भी हैं अपनों की आमद पाने को
पगली, मुंडेर पर ,कौवे की काँव-काँव खोजती है !

दरों पर दरख्त, दरख्तों पर परिंदें नहीं दीखते
भोली, कंक्रीट के वन में पेड़ की छांव खोजती है !

होके मगन नाच उठी थी,इश्क़ में घनश्याम के
बावरी, घुंघुरू बंधे मीरा के वो पाँव खोजती है !

वो दरिया-ए-मोहब्बत,जहाँ परवान चढ़ा था इश्क़
गुस्ताख़,तालिबानी फरमान में चिनाव खोजती है !

हारी हुई बाज़ी से जो बिगड़ी थी,उसे पलटने को
roz, शकुनी के चौसर में आखरी दांव खोजती है !
~s-roz~

Tuesday, July 30, 2013

"ऐसे में कलम का सिपाही" "मुंशी प्रेमचंद याद आता है"

प्रेमचन्द जयंती (३१ जुलाई) पर उन्हें याद करते हुए .....................

समाज की कड़वी हक़ीकतों को भोगने वाला वो अफ़साना निगार जिसके अफ़सानों को आज भी पढ़ने पर ज़ुल्म,भूख,गरीबी,मज़बूरी,के पैरहन में लिपटे किरदार हमारे सामने ज़िंदा हो, ज़ेहन को झकझोर देते है !
हर उम्र,जात और तबके का आदमी उसके अफ़साने में खुद को खड़ा पाता हैं !ऐसा नहीं कि आज का कलमकार इन मौंजू पर नहीं लिखता बेशक लिखता है! अलबत्ते इसी कलम के ज़ोर पे इत्मीनान बख्श शोहरत और पैसे कमाता है! मगर उनमे, मुफ़लिसी जीने और लिखने का फ़र्क साफ़ नजर आता है!!
ऐसे में कलम का सिपाही" "मुंशी प्रेमचंद याद आता है ..........................
.....................................
अपने सपनों के परों को काटकर
नन्हा "हामिद" रोटी से जले......दादी के हाथों पर
चिमटे का मलहम रखता है
वृद्धाश्रम में रहने वाली
जाने कितनी दादियों की नज़रें
अपने "हामिद" को ढूँढती नज़र आती हैं
और "हामिद" अपने से बड़े सपनों के पीछे
भागता नजर आता है .
ऐसे में मुंशी तेरा "ईदगाह" याद आता है !

बदले नहीं है आज भी "बुधिया" के हालात
वो आज भी कमरतोड़ मेहनत कर
परिवार का दोजख भरती है
और थकन से चूर,ज़ुल्म के प्रसव से तड़पती है
और उसका पति........
अपना दिहाड़ी देसी ठेके में गँवाकर
नशे में धुत्त नाली में गिरा नजर आता है
ऐसे मे मुंशी तेरा "कफ़न" याद आता है !

"जालपा" के चन्द्रहार की हसरत,
उसके पति से ग़बन करवाती है
हसरतें, सभी तबक़े की एक सी हैं आज भी
छोटा आदमी बड़ा और ......
बड़ा आदमी और बड़ा होना चाहता है !
बड़ा आदमी बड़े से बड़े घोटाले कर
आसानी से पचा जाता है
छोटा आदमी चंद रुपयों के एवज
चोरी,घूसखोरी,बेइमानी करता पकड़ा जाता है
ऐसे में मुंशी तेरा "ग़बन" याद आता है !

यूँ तो हाक़ीम-हुक़ुमतों औ ज़ालिम-ज़ुल्मतों का
ज़माना ना रहा मगर
अब भी गाँव का "होरी" कर्ज़ के बोझ से लदा,
ज़िन्दगी से खफ़ा नज़र आता है !
वो जो अपनी ज़मीन पर बैल सा जुता नजर आता था
अब अपनी ही ज़मीं पर औरों की इमारत ढोता नजर आता है
और गुज़र करने को खून बेच दो जून की रोटी कमा लाता है
ऐसे में मुंशी तेरा "गोदान" याद आता है !

राजनीति में शोषण,शोषण की राजनीति बदस्तूर जारी है
प्यास से तड़पता जोखू
कुँए का गन्दला पानी पी जाता है
जैसे गरीब बच्चे "मिड-डे-मील"
खाने को मजबूर हो जाते हैं
तब कुएं में मरा जानवर गिर जाता था
अब उनके खाने में
मरी छिपकली और चूहा निकल आता है
ऐसे में मुंशी तेरा "ठाकुर का कुआं" याद आता है !
~s-roz~

Tuesday, July 23, 2013

"फलसफा ज़िन्दगी का "

ज़िन्दगी का गुलदस्ता
धरा था वक़्त के आले में
फूल थे कई किस्म के
सजे थे कांच के प्याले में
रोशनदान की झिर्रियों से
कुछ रौशनी सी आती थी
जैसे अँधेरे के बदन पे
रौशनी की खराशें हो
बारिश के बौछारों से
पत्तियों के कोरों में
...
बूंदें झिलमिलाती थीं
खुश्क गुलों के लबों पर
नमी तैर जाती थी ...
फिर भी .........तीरगी
रूह की मिटी नहीं
कोई नक़शे-पा न मिला
रेंगती रही बस तारीखें
जो रात दिन निगलती थी
बाहर अब भी ......
आफ़ताब झलकता है
छत की मुंडेरों पर
धूप पसर जाती है
चाँद के कटोरे से
चांदनी मय छलकाती है
सुबहो-शाम की परियां
गीत कोई गुनगुनाती हैं
मुद्दतों के बात अब तो
ये बात समझ आई है

ज़िन्दगी वो गुल है जो गुलदस्ते में नहीं खिलता
मन बावरा वो पंछी है जो पिंजरे में नहीं मिलता !
~s-roz~

Tuesday, July 16, 2013

"दिवस के अवसान में "

दिवस के अवसान में
घिरती घटायें घन सी
छेड़ती है तार तन की
विरह का कोई गीत गाऊँ
साँझ का दीया जलाऊँ
बुझे मन के दलान में .....!

काल के मध्याह्न में
तृष्णायें हर क्षण सताती
कामनाएं कुनमुनाती
बांचता है ज्ञान अपना
योग का मन-मनीषी
मोह के उद्यान में........ !

ह्रदय के सिवान में
प्रेम का जो धान रोपा
नेह के न बरसे बादल
नियति ने परोसे हलाहल
भाग्य बैरी सोया रहा
दुर्भाग्य के मचान में ......!

निराशा के मसान में !
चिंता चिताओं सी जल रही
जिजीविषा हाथ मल रही
अँधियारा जो छंटता नहीं
मैं बाँट जोहूँ सूर्य का
आशा के नव-बिहान में !!
~s-roz~
सिवान =खेत

Sunday, July 14, 2013

"अलविदा बे-तार के तार "

किफ़ायत वक़्त और लफ्जों में देता था महरूमी औ मसर्रतकी खबर
हमारे बीच का जो बे-तार का "तार "था, वो आज इतिहास हो गया !!

....
देश में 160 साल पुरानी तार सेवा रविवार से बंद हो गई ,हालाँकि आज के फास्ट युग में उसका कोई औचित्य था भी नहीं फिर भी एक अजीब से मायूसी सी हुई इस खबर को पढ़ते ही !
हमारी पीढ़ी जो न नूतन है न पुरातन ....बल्कि कॉकटेल युग की पैदाईश है इसका सबसे बड़ा फायदा यह ...
है कि हम पुरानी चीजों व मान्यताओं से लगाव भी रखते हैं और नई आधुनिक चीजों व मान्यताओं का पचाव भी कर लेते हैं ....!
इक जमाना था जब डाकिया दरवाज़े पर कागज़ का टुकड़ा लिए जोर से गुहारता था "टेलीग्राम " और घर में क्या अडोस पड़ोस तक में हडकंप मच जाता था ..जने क्या लिखा हो उस मुए तार में .....!
मुझे बचपन की एक घटना याद है .... हम तब कोलकता में रहते थे मेरी नानी सिवान(बिहार ) से आई हुई थी ....एक दिन डाकिया दरवाजे पर जोर से चिल्लाया "टेलीग्राम " नानी वहीँ बरामदे में बैठी मेरे सर इ तेल लगा रही थी ..उनका इतना सुनना था कि पहले एक दो गाली डाकिये को और फिर राग धर कर रोना शुरू ..."अरे हमर रमई के बपई रे मधुबन ई का हो गईल..... एह उमिर में देहिया छोड़ दिहलआआअह्हह्हह अरे मोरे राम जी अब का होईईइ !!!(अरे मेरे रमई के बापू मधुवन (देवर ) जो उनके गाँव आने के समय बीमार चल रहे थे ) इतने कम उम्र में हमें सब को छोड़ कर चले गये हम सब का अब क्या होगा ?)
डाकिया सुन्न सा वहीँ जडवत खड़ा नानी को एक टक देखे जा रहा था कि अचानक ऐसा क्या हुआ .....?मेरी भी हालत कुछ ऐसी ही थी मुझे बस इतना ही समझ आया कि टेलीग्राम बड़ी बुरी चीज होती है ..... तब तक माँ भी किचन से बाहर निकल कर दौड़ी आई नानी को रोता देख वो भी रोने लगी ...! पापा जो ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहे थे रोना सुनकर तुरंत बाहर आये उनकी कुछ प्रतिक्रिया होती उसके पहले ही डाकिये ने झट से तार पकड़ा दिया .... पापा ने एक नजर तार पर लिखे संदेश पर डाली .... उनके चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई !और माँ-बेटी का रुदन-राग को भंग करते हुए बोले अरे रो क्यों रहे हैं आपलोग मिठाई बांटों रीता(मौसी) को बेटा हुआ है ! इतना सुनना था कि दोनों के रोने को ब्रेक लग गया ....नानी तो दमाद से लजाते हुए के साड़ी के पल्लू से मुहँ ढककर कहने लगीं "नाही पाहून सपना बहुत बाउर देखले रहनी एसे बुझाईल अईसन ( नहीं दामाद जी सपना बहुत बुरा देखा था मैंने इसलिए ऐसा लगा कि खबर बुरी होगी )
ऐसी कई प्रतिक्रियाएं होतीं थी "तार" के आते घर ही क्या पूरा मोहल्ला सकते में आ जाता था !आज की वर्तमान पीढ़ी को इस बात का अहसास ही नहीं होगा कि तार सेवा कितनी खौफनाक और कितनी खुशगवार साबित होती थी। यह टेलीग्राफ सेवा ही थी जिसकी वजह से 1857 का पहला स्वतंत्रता आंदोलन विफल हो गया था। अंग्रेजों ने भारतीयों के दमन के लिए टेलीग्राफ सेवाओं का अपने अफसरों तक सूचना पहुंचाने के लिए जमकर इस्तेमाल किया था !
आज हर कोई मोबाइल, स्मार्टफोन, ईमेल और एसएमएस का इस्तेमाल कर रहा है !!जिसके एवज में सुबह की खबर शाम को बासी हो जाती है ...कभी तेजी से संदेश पहुंचाने का माध्यम रही है टेलीग्राफ की अक्षुण्ण सेवाओं को मेरा शत शत नमन एवं श्रद्दाजलि !!
~s-roz~

Wednesday, July 10, 2013

"ग़ज़ल"

जली रस्सी में बल होते हैं,बल नहीं होता,
तख़्त पे बैठा हर आदमी,सबल नहीं होता !

है ताक़त बहुत, इन भूख के निवालों में,
जज़्बा फाकाकशी का, दुर्बल नहीं होता !

रास्तों में नेकी के, हैं खाइयाँ गहरी बड़ी ,
हौसला उसपे चलने का, प्रबल नहीं होता !

हर्फों,खयालों ने, खूबसूरती से गढ़ा मगर,
कागजों पर बना घर, महल नहीं होता !

रौनकें कहाँ खो गईं है ,क़दीम क़स्बों की,
बहारों में भी गुलज़ार,आजकल नहीं होता!

धमाके दर धमाके वो लाख बरपाए मगर,
इरादा बदी का कभी भी,सफल नहीं होता !

क़ातिलों के जिस्मों में भी तो,वो धडकता है
दिल इनका,मुर्दे देख,क्यों विकल नहीं होता ?

आवाम के संजीदा मस'ले बैठकों में हल होतें हैं
अफ़सोस, उनमे से एक भी, अमल नहीं होता !

यहाँ हादसे इस क़दर,मामूल हो चले हैं "roz,
किसी गमीं पर अब, चश्म सजल नहीं होता !
~s-roz~

Sunday, July 7, 2013

"कुचलो या कुचले जाओगे"

शहरों की भीड़
भीड़ भरी सड़कें
सिमट कर चलते लोग
मंजिल की होड़ में औरों को
तेजी से,पीछे छोड़ते लोग
नज़रें बगल नहीं देखती
और नहीं, ज़मीं देखती हैं
फलक का चमकता सितारा
है मंजिल सभी का
उसी भीड़ के,
हम भी एक हिस्से थे
कुछ दूर ही चल पाए थे
तभी ज़मीर ने झकझोरा
ये किसके ऊपर चल रहे हो ?
जरा देखो तो,
किसको कुचल रहे हो ?
नज़रें ज्यों ही झुकाईं
तो देखा,हम जिस्मों पर चल रहे हैं
सर-ए-राह को मक़तल कर रहे हैं
इक पल को हम,
ये अभी सोच ही रहे थे
अचानक पीछे से तेज़ झोंका आया
और, अगले ही पल
हमने खुद को मंज़िल पे पाया
इस जीत की ख़ुशी हम मनाते
के तभी नजर, आती हुई भीड़ के क़दमों पर गयी
देखा के उन जिस्मों में
मेरा जिस्म भी कुचला जा रहा है
जो रुका नहीं तेज है,
वही बच के चला आ रहा है
अफ़सोस हमें रुकने का नहीं है
पर यूँ मज़िल पर पहुंचना क्या सही है ?
भीड़ तो चीटियों की भी होती है
पर वो क़तार बांध चलती है
"कुचलो या कुचले जाओगे "
ये फलसफा आलिम इंसानों ने बनाए हैं !!
~S-roz~

Wednesday, July 3, 2013

"सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट "

पुरखों ने देखा दमन
भोगा भूख
झेली ज़िल्लत
सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट
की ज़ेद्दोजहद में
सीखा छीनना
चाहा जिंदा रहने का अधिकार
और उनकी भूख ने
असमानताओं को खाते खाते
धर लिया हाथों में
हल की जगह असलहा
मुंह को लग गया खून
अब उनकी जठराग्नि अन्न से नहीं बुझती "
~s-roz~

(झारखण्ड में नक्सलियों द्वारा घेर कर मारे गए एस पी एवं पुलिसकर्मियों को श्रद्धांजली  )

Tuesday, July 2, 2013

ऐ "ताज" तुझे हम कुछ इस नजरिये से देखते हैं "

बे-पनाह खूबसूरती "ताजमहल"की
तस्वीरें जब बयां करने लगती हैं
तब "ताज" मेरी जानिब
सोच का एक कंकड़ फैंकता है
जो कुछ यूँ एहसास कराता है के
"संग-ए-ताज़ "को मरमरी बनाने में
जाने कितने ही "संगसाजों" ने
अपनी महबूबाओं के मरमरी गालों को
खुरदरे हाथों से खुरदरा किया होगा
तभी शायद, रहम दिल शहंशाह ने
कटवा दिए होंगे उनके हाथ ....!
वो तो यमुना थी ....
जो गर्क कर ले गयी पसीने उनके
वरना वहां एक समंदर रहा होता
वो जो "मुमताज़" है
एहसास से परे,मकबरे में सोई है
इस जहाँ से मुख्तलिफ़,किसी और जहाँ में खोई है
उसे भी क्या, इन वाक़यातों का इल्म हुआ होगा ?
उसे तो बस शाहजहाँ के प्रेम ने छुआ होगा
अब तो ये दुनिया की तीसरी मशहूर इमारत है
गैर मुल्की सैलानी भी इसके दीदार को आते है
प्रेमी युगल चाव से वहां तस्वीरें खिंचवाते हैं
हमने आजतलक नहीं देखा है ये "ताजमहल"
बस एक तमन्ना रही है दिल में
गर जो कभी, देखूं भी तो
आंखे बंद किये उसकी मरमरी दीवारों को कुछ यूँ सहलाऊं
के "उनके" रुखसारों पर उभरे,खराशों का एहसास कर पाऊं !!!!
~s-roz~

(आज "दैनिक भाष्कर" में खबर "ताजमहल तीसरा विख्यात स्मारक " पढ़ते हुए हुए उभरे कुछ ख्याल! यूँ तो
विद्रोही शायर "साहिर" ने कहा है कि इक "शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल , हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक ....मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे...............
और दूसरी जगह कहते हैं कि.. इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल,
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है .........:) )