जिंदगी के तख्ते को ...
वक़्त !,बढ़ई के रन्दे सा
छिलता रहता है...
और फिर लम्हों के
बुरादे बिखर जाते हैं .....
...दिल, पर दर्द कि कील
ठक ठक सी चुभती है ....
फ्रेम पूरी होने को है
इबादत का रंग रोगन जारी है
पर उसमे तस्वीर नहीं दिखती ,
उस फ्रेम को अभी और संवरना है
शायद,तब हसरत पूरी हो.
मेरे उस दीदार-ए-यार की
~~~S-ROZ~~~
अधूरे ख्वाब
"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "
विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....
Monday, March 7, 2011
"दीदार-ए-यार"
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दिल पर दर्द की कील ठक ठक चुभती है|
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति खुबसूरत अहसासों की अच्छी लगी , बधाई
"जिंदगी के तख्ते को ...
ReplyDeleteवक़्त !,बढ़ई के रन्दे सा
छिलता रहता है...
और फिर लम्हों के
बुरादे बिखर जाते हैं ....."
अद्भुत बिम्ब - अति सुंदर
सुंदर बिम्ब लेकर गढ़ी एक बेहतरीन रचना ..... बधाई सरोज जी
ReplyDeleteसरोज जी,
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत.....बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर एक शशक्त रचना.....सुन्दर|
मित्रों !! आप के समय एवं उत्साहवर्धन का आभार जिस विश्लेषण के साथ आप ने प्रतिक्रिया दी
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