अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Monday, February 21, 2011

"सूरज का दर्द"

‎"सुनो! उस दिन तुमने कहा था ना !
मै सूरज हूँ, मुझे रात के दर्द का इल्म नहीं
किसी रोज़ 'रात' के छत पे आके देख!!
सच कहा था,पर क्या तुम्हे पता है?
रात के दर्द को चांदनी सहलाती तो है
मै तो खुद कि तपिश में जलती हूँ
मेरे जख्म तो कभी सूखते ही नहीं
किसी रोज़ मेरे जख्म आके देख !!
~~~S-ROZ ~~~

 

4 comments:

  1. रात के दर्द को चांदनी सहलाती है..............वाह वाह, बहुत नया और प्यारा अंदाज़ है .पूरी कविता बेहतरीन.

    ReplyDelete
  2. आदरणीया सरोज सिंह जी
    सादर सस्नेहाभिवादन !

    ख़ुशी हुई कि आप राजस्थान से हैं । राजस्थानी भाषा समझ - बोल लेती हैं ?

    मै सूरज हूं , मुझे रात के दर्द का इल्म नहीं
    किसी रोज़ 'रात' की छत पे आके देख !!


    अच्छा काव्य प्रयास है … और श्रेष्ठ सृजन के लिए मंगलकामना है ।

    बसंत ॠतु अभी बहुत शेष है ।
    मंगलकामना का अवसर क्यों चूकें ?
    ♥ प्यारो न्यारो ये बसंत है !♥
    बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

    ReplyDelete
  3. वाह वाह, बहुत नया और प्यारा अंदाज़ है .पूरी कविता बेहतरीन.

    ReplyDelete
  4. आप सभी प्रबुद्ध जनों को धन्यवाद... इस कविता की भावना को समझने के लिए

    ReplyDelete