"सुनो! उस दिन तुमने कहा था ना !
मै सूरज हूँ, मुझे रात के दर्द का इल्म नहीं
किसी रोज़ 'रात' के छत पे आके देख!!
सच कहा था,पर क्या तुम्हे पता है?
रात के दर्द को चांदनी सहलाती तो है
मै तो खुद कि तपिश में जलती हूँ
मेरे जख्म तो कभी सूखते ही नहीं
किसी रोज़ मेरे जख्म आके देख !!
~~~S-ROZ ~~~
मै सूरज हूँ, मुझे रात के दर्द का इल्म नहीं
किसी रोज़ 'रात' के छत पे आके देख!!
सच कहा था,पर क्या तुम्हे पता है?
रात के दर्द को चांदनी सहलाती तो है
मै तो खुद कि तपिश में जलती हूँ
मेरे जख्म तो कभी सूखते ही नहीं
किसी रोज़ मेरे जख्म आके देख !!
~~~S-ROZ ~~~
रात के दर्द को चांदनी सहलाती है..............वाह वाह, बहुत नया और प्यारा अंदाज़ है .पूरी कविता बेहतरीन.
ReplyDeleteआदरणीया सरोज सिंह जी
ReplyDeleteसादर सस्नेहाभिवादन !
ख़ुशी हुई कि आप राजस्थान से हैं । राजस्थानी भाषा समझ - बोल लेती हैं ?
मै सूरज हूं , मुझे रात के दर्द का इल्म नहीं
किसी रोज़ 'रात' की छत पे आके देख !!
अच्छा काव्य प्रयास है … और श्रेष्ठ सृजन के लिए मंगलकामना है ।
बसंत ॠतु अभी बहुत शेष है ।
मंगलकामना का अवसर क्यों चूकें ?
♥ प्यारो न्यारो ये बसंत है !♥
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
वाह वाह, बहुत नया और प्यारा अंदाज़ है .पूरी कविता बेहतरीन.
ReplyDeleteआप सभी प्रबुद्ध जनों को धन्यवाद... इस कविता की भावना को समझने के लिए
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