अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Sunday, June 22, 2014

"चीख़ "


आज हम सभी के रगों में हैं, च्यूंटीयां रेंगती 
मगर कोई ....कहीं जुम्बिश नहीं होती

ख़ामोशी है कि भीतर ही भीतर काटती है 
बेचारगी भी भीतर दीमक सी चाटती है

फिर भी, ज़ुबानों की मुंडेरों से 
आवाज़ें वापिस हलक़ में लौट जातीं हैं

इंसानों की बस्ती है या के 
ज़िंदा क़ब्रिस्तान में कब्रें दम साधे पड़ी हैं ?

जी चाहता है के ....
इस नज़्म की मिटटी से इक गुल्लक बनाऊं 
और उसमे .....

वो जो कोने में सिमटी सिसकती है
नहीं जानती यहाँ सभी के जज़्बात सोये हैं 
मैं उसकी सिसकियाँ भर लूं

वो जो दर्द से बेज़ार कराहता है 
नहीं जनता इस मक़तल में कोई मरहम नहीं रखता 
मैं उसकी कराहटें भर लूँ

वे जो कानों में फुसफुसाते हैं 
नहीं जानते यहाँ सब बहरे हैं 
मैं उनकी फुसफुसाहटें भर लूँ

उनके पेट जो भूख से ऐंठतें हैं 
नहीं जानते यहाँ पेटभरना रईसों का शौक़ है 
मैं उनकी ऐठन भर लूँ

ज़ाहिर सी बात है 
गुल्लक में ये मुख्तलिफ़ आवाज़ें मिलकर 
चीख़ में तब्दील होगी 
फिर मैं ...................
इस बस्ती के चौबारे पर 
वो गुल्लक को फोड़ूगीं
यक़ीनन इन मुर्दा जिस्मों में 
कुछ हरक़त तो होगी 
कुछ हरारत तो होगी

!! 
~s-roz~