अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Thursday, February 24, 2011

"तुम्हारे माथे पर कोन सा सूर्य प्रतिष्टित कर दे?'[पुष्पा भारती के नाम धरमवीर भारती का पत्र ]के कुछ अंश

आज पुस्तकों वाळी अलमारी साफ करते हुए सहसा एक पुरानी पत्रिका(ज्ञानोदय  ,जनवरी ०८ ) हाथ लगी जिसमे एक आलेख "तुम्हारे माथे पर कौन सा सूर्य प्रतिष्ठित कर दें ?(पुष्पा भारती के नाम धरमवीर भारती का पत्र )जिसे ना जाने मैंने  कितनी बार पढ़ा होगा ...आज फिर याद हो आया .
यह पत्र एक  कालजयी रचनाकार के अन्तरंग का आलोक है जिसने भारतीय साहित्य को अभिनव आकाश प्रदान किए हैं। धर्मवीर भारती के ये पत्र भावना की शिखरमुखी ऊर्जा से आप्लावित हैं.इस  पत्र में प्रेम की अनेकायामिता अभिव्यक्ति का पवित्र प्रतिमान निर्मित करती है। पुष्पा भारती को धर्मवीर भारती न जाने कितने विशेषणों में पुकारते ....मेरी सब कुछ, मेरी एकमात्र अन्तरंग मित्र, मेरी कला, मेरी उपलब्धि, मेरे जीवन का नशा, मेरी दृष्टि की गहराई',सूर्या....
पूरे पत्र को यहाँ पोस्ट करना संभव नहीं अत:   उसका एक अंश जो मुझे बहुत पसंद है लिख रही हूँ ......
"मैंने कितनी बार कहा है कि इसके पहले मैंने जो भी लिखा था वह भूमिका थी.वह खोज थी .तब तक मैंने तुम्हे पाया नहीं था -तुम्हारा अनुमान   करता था ,तुम्हारे स्वप्न देखता था,तुम्हारी खोज करता था .पर तुम मिली नहीं थी ,अब जब तुम मिल गई हो ,तभी ना मै अपने आपको पा सका हूँ .और अब सारे युग को इस बात में मदद दे सकता हूँ कि वह अपने को पाए  -अपनी
 
आत्मा खोजें ,अपने सत्य को खोजें ,अभी यह सारा आधुनिक युग आत्माहीन ,दिशाहीन,विभिन्न दिशाओं में भटकाव ,चीखता ,चिथड़े चिथड़े होता हुआ दिख रहा है -उसमे आत्मा नहीं प्रतिष्ठित हुई है -वह अपनी नियति का साक्षात्कार  नहीं कर पा रहा है -क्योंकि वो आत्माहीन है ,आत्मा के लिए हमारे यहाँ कहा गया है कि "सूर्य आत्मा जगत स्थलशच "(जगत कि आत्मा सूर्य है)
 
तभी ना उस दिन मैंने अपनी श्रृष्टि ,अपनी शक्ति,अपनी योगमाया,अपनी पार्वती,अपनी सीता ,से पूछा था "बोलो ये उँगलियाँ तुम्हारे माथे पर कोन सा सूर्य प्रतिष्टित कर दे?"और जब वह सूर्य, वह आत्मा उसके माथे पर प्रतिष्टित हो गयी तो अकस्मात्   वह सूर्या -जो विपरीत दिशाओं में भटकती घुमती थी-अपनी आत्मा पा गयी.अब मै उससे  कह रहा हूँ -सुनो सूर्या ,जो हमारी आत्मा है वही जगत कि आत्मा है जो सत्य हम पाते हैं वह सबका है ! आओ (जो आजतक समस्त संसार के ज्ञान विज्ञानं,दर्शन ,धर्म ने खोजा है उस खोज के मूल में हम अपने प्यार अपनी आत्मा ,अपने सत्य  को पहचाने !यह हमारे चरम डुबान कि ,हमारे मोतियों कि हमारी तित्ती नशीली खुशबु कि उद्दात सार्थकता है )जिसे हम पहचाने !"
आधुनिकता और आधुनिक युग के बारे में बहुत सी बातें तुमने जानी और सुनी हैं और आगे जोनोगी पर एक बात यह जननी सबसे जरुरी  है राज !कि आधुनिक  युग कि सबसे बड़ी tragedy यह है कि उसका अधिकांश ज्ञान -विज्ञानं केंद्र्च्युत है .उसका सूर्य उसकी आत्मा खो गयी है फलस्वरूप उसकी अजब-सी गति है ,जैसे धुरी से उतरा हुआ पहिया होता है न ...तेजी से चलता है ,पर हर क्षण उसकी गति ,दिशा भ्रष्ट   होती चली जाती है ,इस युग का सारा ज्ञान विज्ञानं मानों अपने केंद्र सूर्य से रहित होकर छिटक गया है या तो निरुदेश्य भटक रहा है या एक विज्ञान दुसरे विज्ञान से टकरा कर चूर चूर हो गया है .साहित्यकारों ने चिंतकों ने बार बार इसे पहचाना --तुमने कभी W.B .yeats का नाम सुना है?जिसने टैगोर  को नोबल प्राईज़   दिलाने में मदद कि थी उनकी कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियाँ ...

 "Things fall apart;The centre can not hold,

mere anarchy is loosened upon the world,

The blood drainnedtide is loosened everywhere,

The ceromony of innocence is drowned,

The best lack all conviction,

while the wrost,are full of passionate intensity...

we are closed in ,and the key is thrown,

on our uncertainity....

 
अथार्त -सब वस्तुएं छिटक रही हैं.केंद्र उन सबको  होल्ड नहीं कर पा रहा है.सारे जगत पर अनियम ,अव्यवस्था छा गयी है .खुनी लहरें ज्वार पर हैं और निष्छलता  डूब रही है,श्रेष्ट लोग आस्थाहीन हो रहे हैं और नीच लोग उत्तेजित हैं ,हम कटघरे में जैसे बंद हो गए हैं ,अनिश्चय में छोड़ दीये गए हैं और कपाट बंद हो गया है ......

1 comment:

  1. आज का विषय बहुत सुंदर, सकारात्मक और संवेदनशील है........ आभार

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