अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Wednesday, February 26, 2014

"वो कौन है"

वो कौन है जो 
घने अँधेरे में 
गुमसुम सा 
ख़ामोश सदा देता है 
सिलसिला लम्हों का 
सदियों सा बना देता है

वो कौन है जो 

मेरी सहमी हुई 
साँसों की रास 
थामे हुए चल रहा है
उससे मिलने को मगर 
मन मचल रहा है 

वो कौन है जो 
अपने ना होने पर भी 
अपना वजूद 
थमा देता है
हर इक अक्स पर 
नक़्श अपना जमा देता है 

जाने किस सम्त से 
हवा बह कर आई है 
मेरे कानो में फुसफुसाई है 
वो तो तेरी जाँ भी नहीं
उसके मिलने का 
इम्काँ भी नहीं

सुनकर, मेरे 
पलकों की सलीबो पर 
झूलने लगते हैं ख़्वाब
चांदनी नींद को 
लोरी गा के सुला देती है 
रातें बिस्तर पर 
कांटे उगा देती है 
और नींद .....नींद से उठकर 
मुझे सुलाने, आती नहीं 
... आती ही नहीं !

~s-roz~
इम्काँ = संभावना

Monday, February 24, 2014

अल्कॉहलिक़


बोतलों में क़ैद 
वो हसीं, दिलक़श, माशुक़ा 
जब क़तरा-क़तरा 
दीवाने की हलक़ से 
ज़ेहन में उतरती है तो 
इक धड़कते जिस्म की 
खुशबु औ नर्म लम्स पाकर 
बन जाती वैम्पायर 

नशे की नुकीले दांतों से 
तिल-तिल काटती है 
उसकी सोच, उसका विश्वास 
फिर उसकी देह, फिर मांस 
कर देती है उसे अपनों से जुदा
गिरवी रख देती है उसकी हर सांस 
तहज़ीब पर लगा देती है पहरे 
उसकी तिलस्मी खूबसूरती का वो
इस क़दर दीवाना हो जाता है, के 
अपनी दुनिया, अपने लोग 
उसे ज़हालत लगने लगते है 
वो रोज़ अपनी हदें बनता है 
वो रोज़ उसकी हदें तोड़ देती है 
और जब किसी रोज़ वो 
हक़ीकत के आईने में 
उसके असली चेहरे से वाकिफ़ होता है 
तब वो चाहकर भी खुद को 
उसके चंगुल से निकल नहीं पाता
तिल-तिल उसके गलने से गलने लगते हैं उसके अपने भी .................!!

~स-रोज़~... 
" नशा शौक़ तक रहे तो बेहतर वरना ये ज़िन्दगी कब SUCK करने लगती है इसका इल्म होने तक शायद देर हो चुकी होती है "

Saturday, February 22, 2014

मन के फागुन से लाइव .....II

बसंत के आगमन से ही 
गाँवों में जो उठने लगती है 
फगुनई बयार ...
वो उठ कर 
हमारी जानिब भी आती हैं 
देने संदेशा फाग की 
मगर शहर की 

ऊँची मीनारों से टकराकर 
मायूस लौट जाती है 
कंक्रीट से घिरे हम 
नहीं सूंघ पाते 
महुवे की मीठी सुगंध ,
आम का बौराना ,
कोयल की कूक
टेसू का सूर्ख रंग 
पियारती सरसों का पीलापन 
सुनहली होतीं गेहूं की बालियाँ 

अब तो दीवारों पर टंगी केलेंडर 
और पुलिस की गस्त 
देती है इत्तिला त्योहारों की 
और हम स्मृति के केनवास पर 
अंकित उन छवियों को याद कर 
रस्म अदायगी के तौर पर 
हाथ में केमिकल गुलाल लिए 
एक दूजे को लगा कर 
कह लेते हैं "हेप्पी होली

~स-रोज़~

Thursday, February 20, 2014

"मन के फागुन से लाइव "

बसंत नाई सा 
छांट रहा है 
पेड़ों से ज़र्द पत्ते 
टेसू नाईन सी 
कुल्ल्हड़ में 
घोल रही है 
महावर 

आम के माथे 
बंध चूका है मऊर 
गेंदें ने दुआर पर 
सजा दी है, रंगोली 
बेला-चमेली ने 
इत्रदानों से 
छिड़क दिया है सुगंध 

कोयल,पपीहे गा रहे है 
स्वागत में
मधुर गान 
बंसवारी में 
पवन मुग्ध मगन 
छेड़ चूका है 
बांसुरी की तान 

फाग के इस राग़ में 
मन का ढोल-मजीरा 
जोह रहा हैं 
उस जोगी को 
जो गायेगा 
अबके फागुन 

"अहो जोगिनिया अईली हम छोड़ के सहरिया के नवकरिया तोहरे कारन"
जोगीरा सा रा रा रा रा !!!!

~स-रोज़~

डायन (कहानी)


तीन भाइयों के बाद तेतरी (तीसरी) कन्या का जन्म हुआ इसलिए उसका नाम भी तेतरी ही पड़ गया कहते हैं तेतरी लड़की बड़ी सुभागी होती है । उसके पैदा होने की बड़ी ख़ुशी मनाई गयी  मां बाप व भाइयों का दुलार तो खूब मिला किन्तु ककहरा(वर्णमाला) और देवी गीत सीखने तक की शिक्षा पर्याप्त समझी गई उसके लिए गाँव की अन्य लड़कियों के समान 

 

घर में बरक़त, सुख-शांति में काफी बढ़ोतरी हुई  उसके रूप व गुण के मुताबिक़ योग्य लड़के से उसका धूम-धाम से विवाह संपन्न हुआ जो शहर में सरकारी चपरासी था ।

 

ससुराल में पहला डेग डालते ही नाउन ने दुल्हन का चेहरा देख ख़ुशी से इतराते हुये एलान किया "अरे दुल्हिन तो इन्नर परी है खूब सुन्दर" । पूरे गाँव में उसके रूप व गुण का बखान होने लगा । अब जो भी दुल्हन गाँव में उतरती उसकी तुलना तेतरी से होती । किन्तु तेतरी अपने झांपी-झोरा के साथ अपना सुभाग लाना भूल गयी थी शायद ।

 

कुछ दिन बड़े सुन्दर व चैन के बीते उसके बाद उसके पति को शहर अपनी नौकरी पर लौटना पड़ा 

जाते-जाते कह गया कि 'अबकी बार छुट्टी पर आऊंगा तो तुम्हे साथ ले चलूँगा" । इसी सपने की आस लिए वह विधुर ससुर, जेठ और जेठानी की सेवा में जुट गई । दिन कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता ।

 अब उसके गर्भ में प्रेम का अंकुर पनपने लगा था, उसके सपने और सुनहले होने लेगे थे । शहर से तेतरी के नाम जो मनीआर्डर व पाती आती ससुर व जेठ दुआर पर ही छेंक लेते कभी वो तेतरी के हाथ नहीं आ पाता । 

दिनभर की मेहनत और पौष्टिक आहार की कमी से पेट में पनपता अंकुर सूख गया । इस दू:ख़ से उबर पाती तब तक एक पाती उसके हाथ पकड़ाया गया जिसकी लिखावट ने तेतरी के माथे पर दक-दक करते सिन्दूर को पोंछ डाला।  सिन्दूर भरा सिन्होरा (सिंदूरदान)आले पर धर दिया गया कभी न खुल पाने के लिए  

 

घर के हालात अब पहले जैसे नहीं रहे पति का पेंशन पोस्टमास्टर कुछ पैसे के लालच में जेठ या ससुर को धरा देता  सारे दिन बदन तोड़ मेहनत से थकी हारी और जेठ, ससुर की भेदती निगाहों से बचती-बचाती जब रात को सोने जाती तो भी मंडराती परछाइयाँ रातों की नींद उड़ा देती । हर वक़्त डरी सहमी सी रहने लगी थी वो 

सर्वगुण संपन्न सुभागी दुल्हिन अब अपशकुनी, करझौंसी ,कोख उजाड़न,पेट न भरा तो भतार खा गई जैसे जुमलों से नवाज़ी जाने लगी । जेठानी के पूरे दिन चल रहे थे तेतरी को उसके सामने भी जाने की मनाही थी 

 एक दिन पट्टीदारी में किसी की शादी थी, घर के सभी जन तिलक समारोह में दुसरे दुआर गए हुए थे  तेतरी बड़ी खुश थी कि आज कोई काम नहीं चैन की नींद सोएगी । यही सोच वो जैसे ही कोठरी का दरवाज़ा बंद करने लगी तभी पीछे से किसी ने उसका मुंह दबा दिया ,तेतरी इसके लिए तैयार न थी अतः उससे छुड़ाने की कोशिश में उसके हाथ में आले पर धरा सिन्होरा आ गया उसने उसे ही उसके सर पर दे मारा ,हडबड़ा कर उसने उसको छोड़ दिया तेतरी घबरा कर जोर-जोर से चिल्लाने लगी आवाज़ सुनकर घर के व सारे रिश्तेदार दौड़े आये ,वहां का नज़ारा देख सब स्तब्ध रह गए । जमीन पर चारो तरफ सिन्दूर बिखरा पड़ा था ,तेतरी एक तरफ थर-थर काँप रही थी और दुसरे तरफ जेठ के माथे से खून बह रहा था । लोगों की भीड़ देख जेठ पैंतरा बदलते हुए गुस्से में कहने लगा,

"अरे ये पक्की डायन है देखिये आपलोग सिन्दूर से ओझा-गुनी कर रही थी ।अपना कोख़ तो भक्ष गई अब मेरी पत्नी का कोख़ उजाड़ने का प्रयास कर रही है " अच्छा हुआ आप लोग आ गए वरना ये मुझे भी मार डालती "। इतना सुनने भर की देर थी कि, सभी लोग तेतरी को मारने और भागने पर तुल गए ।

 

तेतरी अब डायन बन चुकी है । अब गाँव के छोर पर मुसहर टोली के दक्खिन ओर जो बगिया है आजकाल वहां एक कुटिया दिखती है जहाँ रोज़ मुहं अँधेरे दुआर पर सिन्दूर टीका हुआ दिख जाता है । लोगों का उस तरफ से आना-जाना  बंद हैं । खास कर बच्चों को वहां जाने की सख्त मनाही है ।

'डायन घर' नाम पड़ा है उस कुटिया का । कोई कहता है वो लोगों का खून पीती है ,कोई कहता है वो उलटे पैर चलती है ।

मगर इन सब से बेख़बर तेतरी बहुत खुश है डायन बनकर , अब उसे दिन को आराम और रात को चैन की नींद आती है । पोस्टमास्टर भी टोना टोटका के भय से अब पेंसन "डाइन घर" दे आता है  

सिन्होरा हाथ में लिए तेतरी कहती है "ये सिंदूर मांग में रहकर रक्षा नहीं कर पाई तो क्या दुआर पर रहकर तो रक्षा कर रही है "?

  सरोज सिंह (s-roz~)

Tuesday, February 18, 2014

तक़लीफ़ की सिलवटें

तक़लीफ़ की सिलवटें 
वक़्त की इस्त्री 
मिटा तो देती है, 
मगर..... कम्बख़त 
वक़्त बहुत लेती है 

आपके अपने 
इसे दूर करना चाहते हैं 
पर अपनी तकलीफ़ 
निहायत अपनी होती है 

ऐसे में ख्याल यही कहता है के 

अपनों से भरी दुनिया में 
आपका का 
अपने सिवा 
अपना कोई नहीं होता !

~स-रोज़~

Thursday, February 13, 2014

"यकीन "

ज़मीं इक अंधा कुआँ है 
और चाँद 
उसका संकरा मुहाना 
रौशनी की मुन्तजिर 
सभी की नज़रें हैं ऊपर 
कोई है जो अपने हाथों से 
ज़मीं खोद रहा है 
उसे यकीं है 
रौशनी यहीं से निकलेगी 
यकीनन निकलेगी

ज़मीं अपने गर्भ में 
अज़ल से है आग छुपाये !!!

~s-roz~

Monday, February 3, 2014

"अल्फाज़ का इक पुल "

हमारे दरमियाँ 
लम्हा दर लम्हा 
अल्फाज़ का 
इक पुल सा 
बना जाता है 
मैं इस छोर पर
किस ओर हूँ 
नहीं जानती 
मेरे लिए तो 
रोज़ अलसुबह
"सूरज"..... 
पुल के उस छोर से ही 
निकलता है !