अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Wednesday, April 22, 2020

लुफ्त-उन-निसा

लुफ्त-उन-निसा 

(जो  ताजिंदगी आलीशान  हाथी सवार (सिराजुद्दोला )की सज्जा संगनी रह  चुकी हो वो गधे की पीठ पर सवार होने वाले(मिरजाफ़र )की अंकसायनी कतई नहीं हो सकती)

 

गद्दार मिरजाफ़र के निकाह प्रस्ताव पर ऐसा संदेश भेजने वाली जाँबाज महिला के बारे में शायद ही बहुत लोग जानते हों क्योंकि इतिहास ने ऐसी कई महिलाओं को अपने अंक में शरण नहीं दी है तो आइये जाने कौन थी लुफ्त-उन-निसा  ?

१७४० में अलीवर्दी खान बंगाल के नवाब बने। जिन्होने १७५६ तक बंगाल की कमान संभाली । उनकी दो बेटियाँ हुईं अमीना बेगम एवं घसीटी बेगम ।सिराजुद्दोला अमीना बेगम के पुत्र थे ।सन १७५६ में अलीवर्दी खान की मृत्यु के बाद सिराजुद्दोला बंगाल बिहार और उड़ीसा के अंतिम स्वाधीन नवाब नवाब बने।

 लुफ्त-उन-निसा  सिराजुद्दोला की दूसरी  बेगम थीं । जिनके बारे में कहा जाता है कि वो गरीब हिन्दू परिवार की बेटी थी। जिसका जन्म के सिराजुद्दोला नाना अलीवर्दी खान के जानना महल में हुआ था। जो बाद में सिराजुद्दोला की माँ अमीना बेगम की परिचारिका बनी। जिसे राजकंवर के नाम से पुकारा जाता था ।मुर्शिदाबाद के हजारदुआरी राजप्रासाद में वो अमीना बेगम की सेवा किया करती थी । लुफ्त-उन- निसा  बहुत ही रूपवान गुणी व मृदुभाषी थी। उसने अपने नम्र व्यवहार से  अमीना बेगम का दिल जीत लिया था ।अमीना बेगम भी उनसे अगाध स्नेह करती थी ।उस वक़्त सिराजुद्दोला का विवाह अभिजात्य वर्ग के इराज खान की पुत्री उम्दत-उन-निसा से १७४६ में १३ वर्ष की आयु में हो चुका था ।किन्तु वह अपनी शादी शुदा ज़िंदगी से संतुष्ट नहीं थे कारण उनकी कोई संतान नहीं थी ।उसी वक़्त अमीना बेगम ने राजकंवर को सिराजुदौला की सेवा में लगा दिया । सिराजुद्दोला राजकंवर के सौंदर्य व गुण पर मोहित हो चुके थे ।और राजकंवर भी सिराज के व्यक्तित्व व पराक्रम से प्रभावित थी ।  उससे आकृष्ट होकर सिराज ने  अपनी माँ के समक्ष राजकंवर से विवाह का प्रस्ताव रक्खा जिसे अमीना बेगम ने सहर्ष स्वीकार कर लिया ।१७५० में निकाह के समय राजकंवर को इस्लाम की दीक्षा देकर लुफ्त-उन-निसा नाम दिया गया जिसे सिराज प्यार से लुत्फ़ा बुलाया करते । लुफ्त-उन-निसा  से सिराज को एक पुत्री का जन्म हुआ ।जिसका नाम रक्खा गया ज़ोहरा बेगम उर्फ कुदिसा बेगम । १७४८ में सिराज के पिता जोइनूद्दीन अहमद खान अफगानी विद्रोहियों द्वारा मारे गए उसके पश्चात सिराज के नाना अलीवर्दी खान  ने सिराजुद्दोला को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया । सिराज के नवाब बनते ही बंगाल का दरबार पारिवारिक षड्यंत्रों का अखाड़ा बन गया।  सिराजुद्दोला मात्र १५ महीने सत्तारूढ़ रहे उनके अपनों ने ही उनका साथ नहीं दिया रिश्तेदारों द्वारा ही सिराज को गद्दी से उतारने के लिए कई षड्यन्त्र रचे गए  ऐसे में एकमात्र सिराज की प्रियतमा पत्नी  लुफ्त-उन-निसा उनके साथ खड़ी रहीं। सिराज के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात हुआ प्लासी के युद्ध में सन् 1757 में प्लासी के मैदान में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और इस्ट ईंडिया कंपनी के कप्तान राबर्ट क्लाईव के बीच हुई सिराज की विशाल १८०० सेना के समक्ष लॉर्ड क्लाइव की मात्र ६००० सेना थी ।क्लाइव को हराना बेहद आसान था किन्तु सिराज के सेनापति मिरजाफ़र लॉर्ड क्लाइव के साथ मिलकर भीषण गद्दारी की और सिराज की सेना युद्ध हार गयी ।हार के पश्चात सिराज ने बहुतों से मदत मांगी मगर अपनों में से किसी ने भी उनकी मदद नहीं की यहाँ तक की सिराज के ससुर इराज खान ने भी मदत नहीं की ।साथ थी तो बस लुफ्त-उन-निसा व उनकी तीन साल  की बेटी तीनों वेश बदलकर पटना में छिपने की कोशिश की मगर दुर्भाग्य  से सिराज पकड़े गए उन्हे बंदी बनाकर मिरजाफ़र के आवास पर लाया गया जो मुर्शिदाबाद में है जिसे अब "नमक हराम की ड्योढ़ी" कहा जाता है । २ जुलाई १७५७ को मिजाफ़र के पुत्र मिरन के कहने पर अलिबेग ने सरे आम गोली मारकर  सिराज की हत्या कर दी और उनके शव को हाथी पर लादकर पूरे नगर में घुमाया गया ताकि लोगों में ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम का डर बैठ  जाये । मिरजाफ़र के भय से सिराज के शव को कोई हाथ भी नहीं लगा रहा था बाद में मिर्ज़ा ज़एन ने अपनी जान कि परवाह न करते हुये सिराज के शव को भागीरथी नदी  के पास खुशबाग में जंहा उनके नाना  अली वर्दी खान को दफनाया गया था उन्ही के पास दफना दिया ।प्लासी के युद्ध को भारत के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है। इस युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू होती है ।

सिराज की मृत्यु के बाद लॉर्ड कलाइव ने मिरजाफ़र को बंगाल का नवाब बना दिया ।नवाब बनने के बाद उसने सिराज के जानना महल में संदेश भिजवाया कि सभी औरतें उसकी हरम में रह सकती हैं ।मिरजाफ़र और उसका पुत्र मिरन दोनों लुफ्त-उन-निसा के सौंदर्य पर मोहित थे व उससे निकाह करना चाहते थे ।मिरजाफ़र ने लुफ्त-उन-निसा को कई बार निकाह के संदेश भेजे हर बार लुफ़्तूनिसा ने मना कर दिया आखिर तंग आकार उत्तरसने एक पत्र के मार्फत संदेश भिजवाया कि" जो  ताजिंदगी आलीशान  हाथी सवार (सिराजुद्दोला )की सज्जा संगनी रह  चुकी हो वो गधे की पीठ पर सवार होने वाले(मिरजाफ़र )की अंकसायनी कतई नहीं हो सकती)" उसके बाद मिरजाफ़र ने लुफ्त-उन-निसा उसकी बेटी एवं जानना महल की सभी औरतों को बंदी बनाकर ढाका के  जिंजीरा महल जो कि जीर्ण शीर्ण हो चुका था उसमे 7 साल तक कड़े पहरे में  नज़रबंद रखा ।उसके बाद उन्हे मुर्शिदाबाद लाया गया जहां आने के बाद लुफ्त-उन-निसा सिराज की विधवा ही बनकर रही व खुशबाग में अपने नाना  ससुर व सिराज की समाधि की  देखभाल करती रही जिसके लिये ईस्ट इंडिया कंपनी उन्हे 301 रुपये सालाना भत्ता देती व उनके खर्चे के लिए 1000 रुयए सालाना व्यक्तिगत भत्ता  मिलता । व सिराज की पहली पत्नी उम्दत-उन-निसा को 500 रुपये व्यक्तिगत भत्ता मिलता था बाद में उन्होने दूसरी शादी कर ली किन्तु लुत्फ-उन-निसा ताजिंदगी सिराज के प्रति समर्पित रहीं ।वो प्रतिदिन  दिन सिराज की  समाधि आतीं व सारा दिन वहीं रहती धूप बत्ती  करने के बाद ही जातीं

 आर्थिक दृष्टि से कमजोर होते हुये भी उसने अपनी बेटी की शादी बड़े साधारण तरीके से की उनकी  चार लड़कियां हुई कुछ वर्ष बाद लुफ्त-उन-निसा की बेटी व दामाद भी चल बसे अब चारों बच्चियों की पालन पोषण व ब्याह की ज़िम्मेदारी भी लुफ़्त-उन-निसा ने निभाई ।लुफ्त-उन-निसा यदि चाहती तो मिरजाफ़र के महल में विलासी जीवन जी सकती थीं मगर वो उस रास्ते गईं नहीं आत्मसमर्पण नहीं किया । सिराज के साथ  दुःख में सुख में आपदा में विदा में सकल दुःसमय में इस गरिमामय नारी से सिराज को सांत्वना व संबल दिया ! सिराज के जीवन काल में जैसी वो संगिनी रही मृत्यु पर्यंत भी वो सिराज की समाधि के पास अपने शेष दिन काटे व उनकी समाधि पर ही मरी पायी  गईं ।1766  से लेकर 1786 तक दीर्घ 21वर्ष तक वो संघर्षमय जीवन व्यतीत करती रही मात्र एक अपनी कन्या के अवलंबन पर एवं सिराज की स्मृति में ।

तो ये थी लुफ्त-उन-निसा की कहानी जो मात्र कहानी नहीं यथार्त है ! नमन है ऐसी विभूति को !!सरोज


Monday, April 20, 2020

कादम्बरी देवी का सुसाइड नोट


कादम्बरी देवी का सुसाइड नोट
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21अप्रैल एक ऐसी विदुषी महिला की पुण्य तिथि है जो मात्र पच्चीस बसंत ही देख पायीं और जिनकी ज़िंदगी अधिकतर दुःख,एकाकीपन और तिरस्कार में बीता । मैं बात कर रही हूँ अपने युग के महान कवि दार्शनिक और चित्रकार रवीन्द्र नाथ टैगोर की नयी भाभी श्रीमति कादम्बरी देवी की जो उनका पहला प्रेम थीं ।
19वीं सदी में टैगोर परिवार बंगाल के सबसे उच्च अभिजात्य और समृद्ध परिवार में से एक था । कुलीन पिराली ब्राह्मण परिवार।भारतीय समाज के हिसाब से समय से कहीं आगे की जीवनशैली जीने वाला परिवार।रवीन्द्रनाथ कुल 11 भाई बहन थे । सभी बहुवें सुशिक्षित थी । रविन्द्र नाथ टैगोर की बड़ी भाभी ज्ञाननंदनी देवी(सत्येन्द्र नाथ जो पहले आई सी एस परीक्षा पास करने वाले भारतीय की पत्नी ) उच्च शिक्षित व आधुनिक महिला थीं ।जो अकेले पानी वाले जहाज से इंगलेंड घूम चुकी थीं ।कादम्बरी देवी के पति ज्योतीन्द्र नाथ जो गायक ,नाटकार ,संगीतकार थे वो भी अपने भाभी के प्रति आकर्षित थे और कई महिला रंगकर्मी से भी उनके संबंध रहे । कादम्बरी देवी बहुत साधारण परिवार की थीं उनके पिताजी श्याम गंगोपाध्याय रवीन्द्र नाथ के घर का बाजार हाट करते थे । रवीन्द्र नाथ के पिताजी देवेन्द्र नाथ के कहने पर यतीन्द्र नाथ जो कि कादम्बरी देवी से दस साल बड़े थे उनसे विवाह हुआ मगर न तो गरीब बाप और न ही उनकी बेटी को इस विशिष्ट परिवार में सम्मानित जगह मिल पाया ।और तो और उनकर जेठानी कादम्बरी देवी को अपमानित व तिरस्कारित करने में कोई कोर कसर न छोड़तीं। कादम्बरी देवी के कोई संतान नहीं हुई जिसकी वजह से उनको बांझ होने का भी लांछन भी सहना पड़ा ।सीरत की राजनीति,वर्ग की राजनीति व प्रजनन की राजनीति –अगर कादम्बरी देवी पर विश्वास किया जाये तो संपन्न, सुसंस्कृत और आधुनिक नज़र रखने वाला टैगोर परिवार द्वारा कादम्बरी देवी को अपूर्ण ,असुरक्षित और अकेला करने में इन तीनों स्तरों पर कोई कसर नहीं छोड़ी गयी ।
रविंद्रनाथ टैगोर तब आठ वर्ष के थे ।जब उनके बड़े भाई यतींद्नाथ का ब्याह उनसे 10 साल छोटी कादम्बरी देवी से हुआ ।रवीन्द्रनाथ उस वक़्त 8 वर्ष के थे ।टैगोर परिवार में ब्याह के आते ही कादंबरी की दोस्ती पति से कहीं अधिक देवर रविंद्र नाथ से हो गई ।कादम्बरी देवी समझदार एवं खूब प्रतिभाशाली थीं। ससुराल में आने के बाद अपनी पढ़ाई पूरी की ।अभिनय की बात हो या साहित्य व काव्य चर्चा या फिर हॉर्स राइडिंग जैसी साहसिक कार्य हो वो ... हर जगह आगे रहती। ज्योतींद्रनाथ भी उच्च शिक्षा प्राप्त विद्वान थे जिनका पूरा समय नाटक और थिएटर मे बीतता ।कादंबरी को वो सम्मान और प्रेम न दे पाये जो कि एक पत्नी होने के नाते कादम्बरी को मिलनी चाहिए थी । घर की औरतों से अनादर और पति की उपेक्षा कादंबरी और रविंद्र के बीच पनपता लगाव समय के साथ एक दूसरे को समीप लाता गया ।
जब रविंद्रनाथ टैगोर की माँ का निधन हुआ तब कादंबरी अपने दोस्त सरीखे देवर की संरक्षिका बन गई यही वो समय था जब कादम्बरी देवी ने रवीन्द्र को सँभाला और माँ समान देख भाल की और बाद मे यही सानिध्य प्रेम मे परिणत हुआ । हमउम्र होने के नाते कादम्बरी और रविंद्र के बीच ऐसी दोस्ती पनपी , जो दिन ब दिन दोनों को बहुत नजदीक ले आई ।मगर जब ठाकुर परिवार में इस संबंध को लेकर बातें बनने लगीं तब पिता देवेन्द्र्नाथ के आग्रह पर रवीन्द्रनाथ विवाह हो गया । कादम्बरी देवी यह सह न पाई और शादी के 4 माह बाद 19 अप्रैल 1884 को अफीम की अधिक मात्रा में सेवन कर ली । दो दिन उनको बचाने की कोशिश की गई मगर 21 अप्रैल को वो चल बसी । उनके जाने के बाद कुल परिवार समुद्री जात्रा पर निकल गया ।
कोलकाता के लेखक -पत्रकार रंजन बंद्योपाध्याय के किताब "कांदबरी देबीर सुसाइड नोट " जब
छपी तब ब्लॉकबस्टर साबित हुई ।रंजन बंद्योपाध्याय की किताब "कादंबरीर देबीर सुसाइड नोट"128 पृष्ट की औपन्यासिक कृति है जो कि कुछ स्थापित तथ्यों पर आधारित है । रवींद्रनाथ तब 23 वर्ष के थे , उनकी 'नोतून बाऊथान' (नयी भाभी )कादम्बरी 25 वर्ष की थीं ।उनके जाने के उपरांत रवींद्रनाथ अपने अधूरे प्रेम को आधार बना कर " नष्टो नीड़" नाम का उपन्यास लिखा ।सत्यजित राय की सुप्रसिद्ध फिल्म "चारुलता" इसी उपन्यास पर आधारित है ।
टैगोर अपनी ज़िंदगी में ज्यादातर जितनी भी रोमांटिक कवितायेँ लिखीं या महिलाओं की जितनी भी पेंटिंग बनाई वो कादम्बरी को ही केन्द्र में रख कर तैयार की गई हैं
रंजन बंद्योपाध्याय के किताब के अनुसार -
रवींद्रनाथ के पिताजी 'महर्षि' देवेंद्रनाथ कादम्बरी देवी की मृत्यु से सबंधित सारे सबूत को जला देने का आदेश क्यूँ दिया ? क्यों उन सब लोगों को जो इस बारे में कुछ भी जानते थे घूस देकर चुप करा दिया गया ? आनन फानन में मृत शरीर को शवगृह न भेज कर अपने घर के बागान में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
सभी सबूत जला दिये गए संपादकों को घूस दे कर मुह बंद करा दिया गया ।जिस वजह से उस वक़्त किसी भी अख़बार में उनकी आत्महत्या की खबर नहीं छपी ।
बंद्योपाध्याय खुद से या संभवत: पाठक से सवाल करते हैं – क्या
कादंबरी देवी आत्महत्या के बारे में कुछ लिख कर छोड़ गईं थी ?
अपने हृदय सम्राट या भविष्य के लिए कोई पत्र?
संभवत: वो कुछ लिखी होंगी और यदि ऐसा था तो
निश्चय ही वो पत्र को भी परिवार के मुखिया के आदेश पर आग को भेंट कर दिया गया होगा।
पाठक को संबोधित करते हुये बंद्योपाध्याय लिखते हैं : ये असल में सुसाइड नोट(आत्मघात से पहले लिखी गई टिप्पणी) नहीं है बल्कि लंबा पत्र है , ऐसा पत्र जो कि पूरा का पूरा जला है । इसको आग से किसने निकाला होगा ?क्या वो रवीन्द्रनाथ थे ?इस घटना के 127 साल बाद पाठक सिसकी, कानाफूसी और ऐसे संबंध, जिसका नाम लेना भी वर्जित है उसी गलियारे से गुजरता है । इसके मूल में एक बदनसीब स्त्री का क्रंदन है जो अपनी बात के सुनाने पुकार करती है।
पत्र के कुछ महत्वपूर्ण अंश -
आमार प्राणेर रोबि (मेरे प्राणप्रिय रवि)
मेरी अंतिम घड़ी आ चुकी है ।मैं पूर्बी आकाश की ओर ताक रही हूँ जो लाल हो चुका है ।पहले तो तुम्हारे नींद से उठने और सूरज के उगने के पूर्व ही मेरी नींद खुलती थी तुम्हारे भोर गान से ।आजकल तुम्हें सो कर उठने में काफी देर होती है!ये तो स्वाभाविक ही है , मात्र चार माह ही तो हुये हैं ब्याह को ।इस ज़िंदगी के शेष महूरत मे जाने से पहले मैंने लिख दिया है सब हताशा सब दुख सब यंत्रणा इसमे कोई झूठ बात नहीं है रबी, हमने बाते बनाना कभी नहीं सीखा केवल तुम्हें सिर्फ तुम्हें प्रेम किया है ।
मेरे जन्मदिन के दिन तुम्हारे नोतुन दादा के संग मेरा
ब्याह हुआ ।वो था मेरा 9 वाँ जनमदिन। मेरी माँ ने कहा था "जनम दिन के दिन ब्याह करना अशुभ होता है"
मगर तुमलोग ठहरे उच्च ब्राह्मण उच्च विचारों वाले इस तरह के विचार तुमलोग नहीं मानते ।ठाकुर परिवार की बहू बन कर आई थी मैं ।मेरा परिचय बना नोतुन दादार बो(नतून दादा की बहू ) और तुमने मुझे प्यार से बुलाया नोतुन बौउठान(नयी भाभी )।
ठाकुर पो,एक दिन ,मझली भाभी के कमरे के पास मैंने सुना मझले दादा सत्येन्द्रनाथ ठाकुर की आवाज..जो अपनी पत्नी से कह रहे थे कि"ये किसको ले आई घर? ये लड़की किस खयाल से हमारे ज्योति के लिए उपयुक्त है ?ये कोई शादी हुई भला ?"
ठाकुर पो,मुझे खूब भय लगा बात सुन के और दुःख भी हुआ । भय इस वजह से कि कहीं वो लोग मुझे घर से न भागा दें तब मैं क्या करूंगी ?
"ठाकुर पो, वो बातें आज भी मेरे कानो में गूँजती है "इस शादी से किसी का कल्याण नहीं होगा। "तुमलोग के संसार का सबसे बड़ा श्राप हूँ मैं ।, मैं पापी तुमसे प्रेम कर बैठी ।आज उसी अमंगल पापी की बिदाइ है ।मैं चली जाऊँ तभी तुमलोग के संसार में फिर से सुख शांति लौटेगी ।तुम्हारे नतून दादा मुझे अपनी स्त्री के रूप में पाकर कभी सुखी नहीं हुये ।हमलोगो का कभी मन का मेल नहीं हो पाया ।सच मैं उनके योग्य स्त्री कभी हो ही नहीं पायी। ,वो सारी ज़िंदगी मुझसे दूर रहे ।
ठाकुर पो, तुमने मुझे इतना माना ,मानते कवि बिहारीलाल चक्रवर्ती भी थे ।मेरे प्रति उनकी भक्ति व अनुराग से मैं शर्मा जाती थी । किन्तु तुम्हारे नोतून दादा का प्रेम... ना किसी दिन न पा सकी ।
ठाकुर पो, तुमसे कुछ भी ढका छिपा नहीं है ।अंतत: तुमने अनुभव किया है कि मेरे और तुम्हारे दादा का संबंध बेहद दिखावटी था । हमारे संपर्क की कोई प्राण प्रतिष्ट्ठा नहीं हुई ।
रोबी, मेरे प्राण प्रिय रोबी, मेरा सब दुःख, सब पराजय और अपमान एक तरफ और एक तरफ सिर्फ तुम ।ठाकुर बाड़ी में मेरे एकमात्र हासिल तुम ही थे सिर्फ तुम । 9 वर्ष की आयु में इस घर में आकार अपने संगी साथी के रूप में तुमको पाया ।छुटपन से जब जवानी की दहलीज़ पर कदम रक्खा तब देह व मन अलग तरीके से बदलने लगा ।जब बदला मेरे चाहत का रंग तब तुम्हें ही एकमात्र बंधु पाया । मेरे प्रति ठाकुर बाड़ी की समस्त उपेक्षा ,घृणा ,अवहेलना का प्रतिशोध लिया तुमने । मेरे परम पुरुष थे तुम । यदि कोई समझ सकता था मेरे हृदय का दहन तो वो तुम थे।
मुझे याद है नन्दन कानन (चन्दन नगर)में रात के अंधेरे में तुमने मुझे गले लगा कर कहा था "नोतुन बउठान तुम्हारे भीतर क्या जल रहा है मैं जानता हूँ तुम्हारी तरह मीठे बोल इस घर में कोई नहीं बोलता।" तुम्हारी बात सुन कर तुम्हारे हृदय के आश्रय के बीच मुझे प्रतीत हुआ कि मेरे भीतर के सभी दुःख व तकलीफ तुम्हारे प्रेम कि बारिश में बह गए ।मुझे एहसास हुआ कि तुम मेरे चिरकाल के संगी हो ।
ठाकुर पो, तुम्हारा वो मन जो अनुभव करता रहा मेरा अपमान मेरा एकाकीपन जो मन सब समय छूता था मेरा मन ।उस मन को हमने चिरकाल तक पाया है ,किन्तु उस मन पर अब मेरा कोई अधिकार नहीं है इसी आस पर मैं अबतक बची रही । ठाकुर पो, मेरा मन फिर से बिखरता जा रहा है उसपर मेरा कोई वश नहीं ।अब इस दोपहर में अपने घर कि खिड़की से देख रही हूँ कि बामन ठाकुर (रसोइया) तुम्हारे घर मे खाना दे जा रहा है ।आजकल तुम अपनी नयी पत्नी के साथ अपनी कोठरी में ही खाना खाते हो गत चार माह ने तुम्हें एकदम बदल कर रख दिया है । इसके पहले तो तुम्हें मेरे हाथ के सिवा किसी और का खाना खाना पसंद भी नहीं था। मुझे बाधित होकर तुम्हारी पसंद का खाना बनाना पड़ता था। अब तुम बामन ठाकुर के खाने से संतुष्ट हो । तुम्हारे ज्योति दादा भी तो हमारे हाथ का बना नहीं खाते ।वो रहते ही कब हैं जो खाते अब तो मैं भूल चुकी हूँ कि कब उन्हे देखा था। उनको तो मझली भाभी की कोठरी में ही आराम मिलता है उनकी रसोई की साहबी(कॉन्टिनेन्टल) डिश हो उन्हे तृप्ति देती है ।
ठाकुर पो,फिर से जीवन के इस शेष प्रहर में मेरा विद्रोही मन रास्ता खोकर बन चुका है एक नया मन ।तब तुम थे एकदम अलग आदमी, मेरे प्राणप्रिय आदमी तब तुम सिर्फ मेरे थे ।
तुम्हारे बिना जीना असंभव है ,जब तुम दूसरी बार विलायत गए थे तब भी मैंने आत्महत्या करने की कोशिश की थी मगर कामयाब न हो सकी किन्तु उसके बाद तैयार हुई मेरी बदनामी मेरी वजह से ठाकुर बाड़ी का माहौल असहनीय हो उठा था ।मैं तुम्हारे नतून दादा को लेकर चन्दन नगर आ गयी वहाँ नील व्यवसायी मोरान साहब की विशाल कोठी को किराये पर लिया गया । वहाँ मैं इनके साथ ये सोच कर गयी थी कि दो लोग मिलकर एक हो सकते हैं मगर हम साथ रहकर भी अजनबी ही बने रहे । तुम्हारे नतून दादा रहा करते अपनी ही दुनिया में और मैं तुम्हारे लिए सारा समय दुखी मन लिए अपनी व्यथा और अपमान बोध के साथ निर्वासित बसी अपनी दुनिया मे ।मैं स्वयं को इस निर्वासन मे जीने के लिए तैयार करने लगी । तुम्हारा जहाज चला तुम्हें लेकर मद्रास जहां से शुरू होती तुम्हारी दूसरी बार की विलायत यात्रा ।किन्तु तुम विलायत नहीं गये मद्रास से जहाज से उतर कर चले आए मेरे पास।
ठाकुर पो, जब तुम आए मेरे देह मन में ज्वार उठा लगा कि सारी कायनात कितनी खूबसूरत है? मेरे मन का घर निर्वासन से लौट आया मगर तुम विलायत क्यों नहीं गए ठाकुर पो ? तुम्हारे पीछे महिला महल के विषाक्त परिवेश में अकेले यह यंत्रणा मैं सह न पाती और आत्महत्या की कोशिश करती इसीलिए न ?तुम लौट आए मेरे आश्रय में मगर क्या तुम मुझे बचा पाये?मेरा प्रेम ही मेरी नियति है तुम किस तरह मुझे बचा पाओगे ?ठाकुर पो, यदि मैं कहूँ कि तुम्हारे विलायत यात्रा से लौट आने में ही निहित था मेरा मरण बीज तो क्या तुम यह बात सह पाओगे ?
ना मेरे जाने के बाद किसी तरह का अपराध बोध में अपने को कष्ट मत देना ,एक रत्ती कष्ट मत देना अपनी नयी बहू को ।ये मेरा भाग्य है । तुम्हारी कोई गलती नहीं । तुम्हारा प्रेम ही तो खींच ले आया मेरे पास, बाकी तो तुम्हारे मेरे वश में कुछ भी नहीं था ।
ठाकुर पो, आज मैंने व्रत रक्खा है । रसोई मे पहले से ही कहा दिया है ।आज मेरा दरवाजा बंद है दुनिया की खातिर आज मैंने इसे बंद कर दिया है । मेरे मरने के बाद जब तुम दरवाजा खोलोगे और मुझे मरा पाओगे तब शायद तुम प्रेरित हो कुछ लिखने के लिए क्या पता उन पंक्तियों के पीछे मैं बसूँ।
मैंने मेज पर रख दी है अपनी सिलाई बॉक्स ।मेरी खिड़की के पास जो फूल का पौधा था उसमे अंतिम बार पानी डाल दिया है ।मेरा नाम लिखा हाथ पंखा ?उसे तकिया के ऊपर रख दिया है ।
कहानी की किताब जिसे कई दिनों से पढ़ रही थी उसे समाप्त नहीं कर पाई ।अपने जुड़े के कांटे को बूकमार्क बना कर उसे वहीं छोडना पड़ा ।तुम्हारे और मेरे जितने लिखे हुये पत्र थे वो सब बिखरे पड़े है पूरे कमरे में ।और कुछ छिपाने को बचा नहीं ठाकुर पो,उन सभी को मेरे चिता के संग जलने देना ।हमारे संबंध के सभी प्रमाण मिटा देना।
ठाकुर पो , अब और कुछ लिख नहीं पा रही फिर भी लिख कर जा रही हूँ । मेरी मृत्यु के लिए कोई उत्तरदायी नहीं है ।दायी नहीं हैं बाबा मोशाय स्वयं बाबू देवेन्द्र्नाथ ठाकुर जिंहोने जबरन तुम्हारा विवाह करा कर मुझसे तुम्हें दूर कर दिया ।कसूरवार नहीं हैं मेरी मझली जेठानी ज्ञानन्दनंदनी देवी जिन्होंने मुझे तुम्हारे नतून दादा के योग्य नहीं समझा ,ना ही दिया कभी लेशमात्र को सम्मान
।तुम्हारे नतून दादा ठाकुर ज्योतीन्द्र नाथ भी दायी नहीं हैं जिनके पॉकेट से एक दिन मुझे मिला था प्रसिद्ध रंगकर्मी का प्रेम पत्र जिसके नीचे कोई नाम न था ।
ठाकुर पो , तुम भी दायी नहीं हो ,तुम्हारी ज़िंदगी की अब नयी पारी शुरू हुई है मैं तो तुम्हारी पुरानी खेल की संगनी हूँ ये जगह तो नए के लिए मुझे छोडनी ही होगी ।तुमने ही तो लिखा था .....
"ढको तब ढको मुख
लेते जाओ दुःख औ सुख
पीछे झांकों मत, झाँको मत तीरे तीरे
यहाँ उजास नहीं अनंत आकाश में
अँधियारे में मिल जा धीरे धीरे "
तब ऐसा ही हो ठाकुर पो, मैं अंधेरे में गुम हो जाऊँ, किन्तु किसी भी रूप में तुम उत्तरदायी नहीं ठाकुर पो, मेरी मृत्यु के लिए दायी है मेरी अमोघ, निर्बोध नियति ।अब मुझे कोई पाप छू नहीं सकता मैं इन सब से दूर जा चुकी हूँ जहां पुण्य है।
मैं तुमसे कभी नहीं कहूँगी कि तुम मुझे याद करो मैं सबकुछ खो चुकी हूँ।बस एक चीज जो नहीं खोया है वह है तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम ।अब भी मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूँ मेरा विश्वास करना रबी !
तुम्हारी
नोतून बउठान
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संदर्भ-Ranjan Bandhyopadhya's novel "kadambari devi's suicide note"
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सरोज सिंह