अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Friday, November 20, 2015

देखना,अब बदलेंगी लोकगीतों की दास्ताने

परिंदे औ परदेसीयों के 

दूर वतन जाने पर 
दुआओं की गठरी बाँध 
घर की चौखट पर 
बैठी वजूद का 
मिटटी होना लाज़मी होता 
आँखों के बहते आंसू 
उस मिटटी को सींचते रहते 
जिनमे.... गाहे-बगाहे 
उम्मीदों के सब्ज़े उग आते 
लोकगीतों की दास्ताने
उनसे ही आबाद थी

मगर अब ..........हमवतन ही 
दुआओं की छतरी लिए 
सुबह के निकले परिंदे औ बाशिंदे 
वाजिब वक़्त ......
जब घर को लौट नहीं आते 
बजाये आने के उनके
बजती है फोन की घंटी 
तब .....चौखट पर 
अपसकुन बुहारती 
बेसब्र आँखे पथरा जाती हैं 
अब उन आँखों से 
अश्क तर नहीं होते
उन पथराई वजूदों पर 
कोई सब्ज़ा भी नहीं उगता 
बस इक आह: होती है 
के, कोई तो आये 
और उन्हें मिटटी कर दे 
देखना ......
अब बदलेंगी लोकगीतों की दास्ताने 

~s-roz~