अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Sunday, December 30, 2012

माँ !! उसका जीवित बचना उचित था या मर जाना ?(कुछ अनछुए पहलु कुछ सवाल )

 
 दामिनी की दारुण मृत्यु की खबर मिलते ही" विचार शून्य "थी !बस शोक ,शर्मिंदगी,बेबसी और लाचारी के भाव ही उभरे .....कुछ सत्ताधारियों ने उसे शहीद और बलिदानी कहकर इस समस्या से पल्ला झाड़ने की चेष्टा में थे उन्हें कौन समझाए कि ये बलिदान नहीं नृसंस बलि" है !उसका जिस्म जरुर ख़त्म हुआ है पर उसकी रूह हम सभी के जेहन में तबतक भटकेगी,झकझोरती रहेगी जबतक इन्साफ नहीं होता !
मेरी 13 साल की बेटी "शुभी" जो टी वी पर कार्टून शो देखना पसंद करती थी पिछले तेरह दिनों से केवल न्यूज़ चेनल ही देखती रही ......उसके जाने की खबर सुनते ही ....मुझसे कहने लगी मम्मी अच्छा ही हुआ न दामिनी मर गयी अगर जिन्दा रहती भी तो फीजिकाली और मेंटली सोसाइटी को कैसे फेस करती ? उसकी बात बड़ी क्रूर लगी मुझे, कैसे सपाट उसने कह दिया ......पर बात में सत्यता तो थी ही .....शारीरिक तकलीफ से ज्यादा वो लोगों की दया दृष्टि उसके लिए कष्टकर होता .....!एक सफल वैवाहिक जीवन क्या वो जी पाती ?
हमारे समाज में एक नहीं ऐसी कई दामिनियाँ है ,जिसके बारे में हम नहीं जानते और वो किस गर्त में गई यह भी ज्ञात नहीं .....इस घटना के बाद लोगो के हुजूम और जन जाग्रति को देखकर कुछ उम्मीद तो बंधी है ...शायद अब वो समय आ गया है जब समाज एक वैचारिक क्रांति चाहता है ....जहाँ सेक्स शब्द को अपराध से न जोड़ा जाये ......पीड़ितों को समाज में वही स्थान और सम्मान मिले .....महिलाएं खुलेआम वक़्त बेवक्त बेख़ौफ़ बहार निकल सकें ! समानता व स्वतंत्रता हो !
इस दुर्घटना ने जेहन में कुछ प्रश्न है उजागर किये हैं जिनका हल ढूँढना और समझना चाहती हूँ ...
  • हमारे समाज में चर्चा का विशेष मुद्दा क्योँ महिलाओं का पहनावा बनता है ?जबकि मुद्दा बलात्कार का होता है !
  • ऐसे माहौल में क्या हम बेहिचक अपने बच्चों को बड़े शहर पढने या नौकरी करने भेज सकते हैं ?
  • .हमारे समाज में क्योँ "प्यार" शब्द "रेप" शब्द से भी अधिक अप्रतिष्ठीत है ?
  • हमारे कानून व्यवस्था में अभी भी पुरातन व अप्रासंगिक नियमों का अनुपालन क्योँ हो रहा है ?
  • हमारे समाज के कुछ "कल्चर ब्रीड "पुरुष अब भी ये क्योँ समझते हैं की महिलाओं का देर रात निकलना उचित नहीं है ?
  • क्योँ बाज़ार में एसिड कहीं भी आसानी से ख़रीदा जा सकता है जबकि अल्कोहल खरीदने के लिए परमिट की जरुरत होती है ?
  • यदि बलात्कार पीड़ित बच भी जाए तो क्या समाज उसे पुरवत उसी सम्मान के साथ अपनाता है?
  • हम सेक्स की सही परिभाषा अपने बच्चो के समक्ष रखने में क्योँ झिझकते हैं ...नतीजा यह होता है की वो इधर उधर से और सस्ती पत्रिकाओं से गलत जानकारी हासिल करते हैं जिसका नतीजा आज हम भुगत रहे हैं !
  • गर्भ से लेकर गृह तक समाज से लेकर संसार तक महिलायें क्योँ सुरक्षित नहीं है?
  • किसी महिला द्वरा शारीरिक सम्बन्ध के मनाही पर पुरुष के अहम् को क्योँ ठेस लगती है और जबरदस्ती कर वो आपनी मर्दानगी दिखाता है ?
  • सारी रस्मे रिवाज और सदआचरण महिलाओं के जिम्मे क्योँ है ?ऐसी अपेक्षा पुरुषों से क्योँ नहीं की जाती ?
  • हम सब सोये हुए क्योँ रहते है जब कोई अनहोनी हो जाती है तब हमारी नींद खुलती है और हम जाग कर फिर सो जाते हैं ..समाज में आई जड़ता के लिए क्या हम उत्तरदायी नहीं हैं ?
  • प्रचार कम्पनियाँ और सिनेमा जगत महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझ कर ही क्योँ पेश करता है ?
  • हम चैतन्य होना कब सीखेंगे ?
  • क्या सारा दोष व्यवस्था पर मढ़ देना उचित है ?व्यवस्था "कदाचार" मिटा सकता है "सदाचार" सिखा नहीं सकता !

सवाल तो ऐसे और कई हैं पर इनके जवाब और हल मिलने बड़े मुश्किल हैं ......इनमे से अधिकाँश बिन्दुओं पर अच्छी खासी चर्चा हो चुकी है और होती रहेगी और निरंतर होती रहनी चाहिए ....मैं कुछ अनछुए पहलु पर चर्चा करना चाहूंगी जो इस समस्या का मूल है .....!

इस समस्या का मूल क्या है ?
.................................................
इस समस्या के मूल में जाए तो हम पाते हैं कि हमारे समाज ने काफी पहले से या यूँ कहे कि प्रारंभ से ही स्त्री और पुरुष में असमानता पैदा करती आई है ....प्रकृति ने केवल बायोलोजिकल लिंग(सेक्स) में भेद किये किन्तु समाज ने सामाजिक लिंग (जेंडर ) दोनों में समानताओं को उभारने की जगह उनके अंतर पर ज्यादा जोर दिया ...
जबकि .....सच तो यह है कि हर इंसान में स्त्री और पुरुष दोनों होते हैं !पर अक्सर समाज लड़की के अन्दर छुपे पुरुषत्व को और लड़के के अन्दर छुपे स्त्रीत्व को उभरने नहीं देता बल्कि अंतर पर ज्यादा जोर देता है !यही वजह है दोनों के दरमयान फर्क बढ़ने का !!
सामाजिक लिंग इंसानों का बनाया हुआ है हम सब अगर चाहें तो उसे बदल सकते हैं ,लड़का -लड़की स्त्री पुरुष की नवीन परिभाषा गढ़ सकते हैं !
हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जहाँ लड़की होने का मतलब ---कमतर ,कमज़ोर होना नहीं है ,और लड़का होने का अर्थ क्रूर ,मजबूत और हिंसात्मक होना नहीं है ....
क्या समाज निर्मित करना कुछ लोगों की जागीर है ?
......................................................................
यूँ देखा जाए तो जीने के दो तरीके हैं !
एक है बिना सवाल उठाये हम रिवाजों ,परम्पराओं ,कानूनों को मानते चले जाएँ !जो है उसे अपनाएँ ,दोहराए जाएँ .बिना यह पूछे कि "हम ऐसा क्यूँ कर रहे हैं .ऐसा करने से फायदा क्या है नुक्सान क्या है?
दूसरा तरीका है कि हम जो भी करें चेतन मन से करें ,यह समझ कर करें कि हम ऐसा क्यूँ कर रहे हैं !सिर्फ इसलिए कि ऐसा रिवाज बना दिया गया है और हम किसी की खींची लकीर पर चले जा रहें हैं ?या इसलिए कि वो रिवाज अच्छा है सब के लिए फायदेमंद है !
हमें लगता है की चेतन होकर जीना बेहतर है ,उस में एक मजा है उस से हम में और चारो तरफ जड़ता नहीं आती ,बदलते हालात के साथ हम भी बदलते रहते हैं !यदि सब चैतन्य हों और सवाल उठाने की हिम्मत करे तो फिर समाज पर सोचने ,उसे बनाने या बिगाड़ने का ठेका कुछ लोगों के हाथ में नहीं रहेगा !
हम चाहें तो ऐसा समाज निर्मित तो कर ही सकते हैं व्यवहार और हुनर किसी लिंग,जाति /वर्ग के आधार पर न थोपें जाएँ सब अपनी मर्जी और स्वभाव के मुताबिक काम कर सकें और व्यवहार कर सकें !
और अंत में तसलीमा नसरीन की एक कविता "यु गो गर्ल "समाज में लड़कियों को बोल्ड बनाने को प्रेरित करती है ..उसे अनुवाद करने का एक प्रयास कर रही हूँ .....कृपया इसे साहित्यिक दृष्टि से नहीं अपितु अर्थ और भाव की दृष्टि से ग्रहण करें !!!
"लड़की तुम्हे आगे ही बढ़ना है "(तसलीमा नसरीन की कविता "यु गो गर्ल" का अनुवाद)
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वे कहते - आसानी से स्वीकार करो
कहते -बकवास बंद करो
कहते -चुप रहो
वे कहते -बैठ जाओ
कहते -सर को झुकाओ
कहते -रोते रहो आंसुओं को बहने दो
जवाब में तुम्हे क्या करना चाहिए ?
तुम्हे खड़े हो जाना चाहिए
सीधे खड़े हो जाना चाहिए
पीठ सीधी कर
सर को ऊँचा कर
तुम्हे बोलना चाहिए
तुम्हारा मन बोले
जोर से बोले
चिल्ला कर बोले
तुम्हे इतना जोर से चीखना चाहिए की वो दौड़ पड़े
फिर वो कहेंगे -तुम बेशर्म हो
जब तुम यह सुनो बस हंस दो
वो कहेंगे -तुम चरित्रहीन हो
जब तुम यह सुनो ,और जोर से हंसो
वो कहेंगे -तुम सड़-गल चुकी हो
तो जोर से हंसो और जोर से।।
तुम्हारी बेख़ौफ़ हंसी सुनकर
वो चीख कर कहेंगे -तुम वैश्या हो !
जब वे ऐसा कहें
अपने हाथों को कूल्हों पर रखकर
दृढ़tता से खड़े होकर कहो
हाँ, हाँ, मैं एक वेश्या हूँ!"
वे हैरान हो जायेंगे
अविश्वास से तुम्हे घूरेंगे
वो तुम्हारे और कुछ कहने का इंतजार करेंगे
उनमे से जो मर्द हैं
वो शर्म से पसीने पसीने हो जायेंगे
और उनमे से जो औरतें हैं वो
तुम्हारे जैसे "वैश्या" होने का सपना देखेंगी ....

Monday, November 26, 2012

"वक़्त का कबाड़ी "

वक़्त का कबाड़ी !
सन्नाटों से भरी खाली बोतलें,
खरीदता भी है और बेकता भी !
बेचने वाले जिंदगी जी चुके होते हैं,शायद !
और खरीदने वाले ........
उसमे जिंदगी भरने की जद्दोजहद में
मशगूल रहते हैं !
कुछ....
जो हुनरमंद है,
उसमे जिंदगी, भर पाते हैं !
...
और कुछ ,हम जैसों की,
जिंदगी !
कुछ बोतल में
कुछ बोतल के मुहाने और कुछ बोतल के आसपास
छिटकी पड़ी रहती है !
ये जिंदगी भी है न बड़ी सख्त जान है !
बोतल के संकरे मुहाने
उसे भरना
सबके बस की बात नहीं ............!
~s-roz ~

Thursday, November 8, 2012

"तसव्वुर तेरा "

"मौसम ए बारिश" गुज़र चुकी है
सर्द रातों की आमद है
कभी फुर्सत से
मुसलसल ...
बरसते थे जो लरजते लम्हें
जमींदोज हैं !
मगर ज़ेहन के
किसी तंग सी गर्त से
रूह की सतह पर
टप.. टप.. टप ,
रिसता रहता है
अब भी
तसव्वुर तेरा !
~s-roz~
(बिटिया को "Under ground water"पढ़ाते हुए :)

Thursday, November 1, 2012

"कह देते मुझसे एक बार "

"मेरा स्नेह,मेरी पूजा,
मात्र प्राक्कथन था तुम्हारे लिए
जल रही थी शंकाएं जब मन में
कह देते मुझसे एक बार
मै उपलब्ध थी,शमन के लिए.............!

ह्रदय कुंड में स्वाहा किया,
निज अहंकार तुम्हारे लिए
जब दिनोंदिन शेष होती रही प्रेम समिधा
कह देते मुझसे एक बार मैं उपलब्ध थी हवन के लिए ..............!

संबंधो के मंथन में
सदा अमृत ही चाहा तुम्हारे लिए
किन्तु अमृत पान कहाँ सरल है गरल के बिना
कह देते मुझसे एक बार
मैं उपलब्ध थी,आचमन के लिए ..........!
~s-roz~

Monday, September 24, 2012

"हे शब्द शिल्पी "

तुम !
शब्दों के धनी मनी
शब्द शिल्पी हो !
गढ़ लेते हो
प्रेम की अनुपम कविता !
किन्तु भावों के मेघ
मेरे मन में भी
कम नहीं घुमड़ते !
मेरा ,आतुर ,उद्दांत हृदय
कसमसाता है
छटपटाता है
प्रेम के उदगार को
किन्तु मेरे निर्धन शब्द
श्रृंगारित नहीं कर पाते
मन के अगाध भावों को
यदा कदा....
दरिद्रता झलक ही जाती है
हे शब्द शिल्पी !
क्या ही अच्छा होता
शब्दों के साथ साथ
भावों के भाव भी
तुम समझ पाते !
~s-roz ~

Sunday, September 9, 2012

"उनके बस्ते में"..."ग़ज़ल "

तालीम--तर्बीयत नहीं बसती उनके बस्ते में !
है तो बस भूख,गरीबी,जुर्म,ज़लालत उनके बस्ते में !!
हाथ जख्मी और मैले हो जातें हैं कचरे में उनकें !
रद्दी के साथ हैं ख्वाब भरे तितलियों के पर भी उनके बस्ते में !!
अलसुबह जो बाँटते हैं अखबार पढने को घरो में !
नहीं मिलती वर्णमाला की कोई पुस्तक उनके बस्ते में !!
ढाबों में लज़ीज़ खानों के नाम जुबानी याद है जिन्हें !
दो जून की सूखी रोटियां भी नहीं अटती उनके बस्ते में !!
गर्म जोशी से कागजों पर निपटाए जाते हैं तालीमी मस,अले:!
बाद उसके वो कागजें हो जाती हैं बिलकुल ठंडी उनके बस्ते में !!
~S-roz~
 

Thursday, September 6, 2012

"तर्पण"


हताहत हैं सभी
कोई ना कोई अंग
जख्मी  है सभी का
मरणासन्न ,...किन्तु
अदम्य जिजीविषा
मारे डाल रही
न निकलते है प्राण
न मिलता है त्राण
मृत्यु जागृत हो रही
चहुँ  ओर  !
क्या,
अब कोई बचा नहीं  
अखंडित ?
जिसके हाथों
हो सके अर्पण .
हम सभी के  
तर्पण का !!
~S-roz ~
 
 

Monday, August 27, 2012

"कुछ मुखतलिफ़ से ख्याल "

किसने कोड़े बरसायें हैं मौसम की मदहोशी पर
इतना बरसा टूट के बादल डूब गया सब सहरा भी!!
 
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दिल बेचैन ,रूह हैरान है, उस "खुदा" की बे वफाई पर
ए रोज़! भीड़ में यूँ किसी को भी"खुदा" न बनाया कर !!
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तेरा कद्दावर "दर" इतना बौना था के
सर भी ना बचा ,अना भी टूट गई !!
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जिंदगी का इक वरक़ रोज़, पढ़कर छोड़ते रहे हम
आँख खुली तो देखा उसी वरक़ को रोज़, मोड़ते रहे हम  !!
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सहमी सहमी सी है,शज़र की सब्ज कोंपले
सरफिरी हवाओं का सर अब कुचलना होगा!!
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दुश्मनी का सफ़र बड़ा पेचीदा ह                  
                      चलो दोस्ती की राह पकड़ें ..............
 इसका सफ़र एकदम सीधा है!!
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जख्म ऐसे पायें हैं के भरने को नहीं आते
शहद से मीठे बोल पे बहुत ऐतबार था उसका !! 
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मुसाफिर तुम भी हो,मुसाफिर हम भी है
जाना तुम्हे भी है ,जाना मुझे भी है
उसे पाना तुम्हे भी है ,पाना मुझे भी है
ओह्ह!! तो धक्का धुक्की किस बात की
हाथ में हाथ डाल और साथ चल !
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बदलियों से अठखेलियाँ उसकी जाती नहीं
रौशनी है कि अब हमारे घर पूरी आती नहीं !!
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जिंदगी ताउम्र तार्रुफ़ करवाती रही सिर्फ नाकामियों से
कुछ खुशरंग एहसास बचे है जो जीने की सलाह देते हैं!!
 
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माफ़ करना गर लफ़्ज़ों की धार बेज़ार करे
मुझे "रेशमी लफ़्ज़ों" की रफुगिरी नहीं आती !!
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चाहूँ भी गर आना पास तेरे, आ नहीं सकती
पाँव में मेरी जड़ें मजबूत है,दरख्तों की तरह !!
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बाहरी वजूद उसका "पथरीले कोहसार "सा है
पर ये इल्म है हमें भीतर उसके"चश्मे" गाते हैं !!
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यहाँ भावों को व्यक्त न करने की मुनादी है
और हम प्यार के शब्दों के आदी अपराधी हैं!!
~S-roz~
 

Monday, August 13, 2012

"तलाश"

हम दोनों !
ये बेहतर जानते हैं
जमीं ही सफ़र है,
जमीं ही जिंदगी
फिर भी...
हमारे ...
चाहत के आईने में
वो आसमान झलकता है
जो हमारी दस्तरस से बाहर है
तुम तलाशते हो मुझमे जो मैं नहीं
मैं तलाशती हूँ तुममे जो तुम नहीं !
~S-roz~

Sunday, August 12, 2012

"प्यास"

 ·

Thursday, August 9, 2012

श्याम श्याम श्याम श्याम

निःशब्द धरा,निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर पर रोम-रोम
टेर रहा बस तेरा नाम
श्याम श्याम श्याम श्याम !!
 
जन्माष्टमी की ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएँ :))

"राम स्पर्श"

तुम्हारे शब्दों के"राम स्पर्श" ने
ह्रदय वन में,उगे बनफूल को
जाने कैसे तो, छुआ था
अब आकर देखो तो
वो रूप से नहीं
गंध से नहीं
वर्ण से नहीं
बल्कि सम्पूर्ण
वानस्पतिक तत्व से
अकेला ही जी-वन से भरा
उप-वन हो गया है
~s-roz~

Wednesday, July 18, 2012

"वह अज्ञात "

ह्रदय बिंदु में
अश्रु सिन्धु में
डूबते ..
उतरते ..
तिरते ...
किनारे की आस
मिलन की प्यास
बुझती स्वांस
दैहिक ह्रास
किन्तु .......!
वह अज्ञात ..वह अज्ञात ..वह अज्ञात !!!
~S-roz~

Wednesday, July 11, 2012

अकवन-सत्य बीज

 आज क्यारी में स्वयं उग आए
अकवन के पौध को देख
सहसा यह विचार उमड़ा कि
अकवन" के बीज को बिजता नहीं कोई
इसके रुई से हर गोले के मध्य एक बीज होता है
मानों उसे ईश्वर ने पंख दिए हों
जहाँ जाकर गिरता है वहीँ उग आता है
अपने अस्तित्व को मिटने नहीं देता
इन्हें खाद पानी की भी आवश्यकता नहीं
बिलकुल उस "सत्य" की भांति
जिसे किसी तर्क की आवश्यकता नहीं
किन्तु कड़वा होता है उसके दूध की भांति
वरना हमने इस धरती पर
झूठ बोने और उगाने में
कोई कसर नहीं छोड़ी है !!
~S-roz~
अकवन=आक/मदार/अर्क /अक्क

Monday, July 9, 2012

"अश'आर "

सुलझी बाते ही आजकल बहुत उलझी रहती है "रोज़"
इसलिए अब कोई इन बातों में जल्दी उलझता नहीं 
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ये फरेब आइनों का शहर है "रोज़" !
एक चेहरे में कई चेहरे नजर आते हैं
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मेरी नजर तो है पर नजर की परख कहाँ
मैं जानती हूँ, हर जगह है तू, मगर कहाँ ?
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फिजां की नब्ज़ नब्ज़ भांप लेते हैं बड़े एहतियात से
मगर हजरत से दिल की धड़कन पहचानी नहीं जाती
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उनके जुल्म की लाइंतहांइयां अज़ाब हैं
और मेरे सब्र का जौहर बे-हिसाब है !
 (लाइंतहांइयां=असीमिततायें )
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हर दफे सुनाते हो बीते कल की दास्ताँ हमें
है जो रब्त हमसे तो आज की बात सुना मुझे
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चोट खा कर जो अभी गिरे हैं, हमें उठाये ना कोई
गिर कर जो खुद उठता है फिर यूँ गिरता नहीं कभी
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इससे पहले के रुख बदले ये हवा और वो नजर"रोज़"
बेहतर है, उससे पहले अपने घर लौट जाना महफूज़
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जिंदगी तो इन्ही ख्वाबों में वाबस्ता है
वरना "रोज़" यहाँ जीना कौन चाहेता है
~S-roz~

Sunday, May 27, 2012

"सूरज दद्दा '

सूरज दद्दा तनिक मान जाओ
इत्ता काहें तपाय रहे हो
गुस्से में सर खपाय रहे हो
बदरा भईया कहाँ छिपे बैठे हो
तनिक छींटा ही मार देओ
जो इत्ता गर्माय रहे हैं
तनिक नरमाए जाएँ
दद्दा ! बदरा से तोहार कभी ना पटी है
पर एसे तोहार महत्ता थोड़े ना घटी है
अब तो दोनों मिलके सदी-बदी कर लेओ
अउर हमहन के तनिक जिए देओ
हम जानित  है ....
पाहिले पेड़ की डार तुमका लुभाय रहती थी
मुख पर तुम्हरे बेना झलती थी
एहिलिये ,हम मान लिहे अपनी गलती
अब ना कबहूँ काटेंगे कवनो पेड़
माना की हुई गवा है कछु देर
कसम लै लेओ अबकी बरसात हम खूब पेड़ रोपेंगे
जे काम हम खुद करेंगे अउरो पे ना थोपेंगे
पर दद्दा!! अबही तनिक मान जाओ पलीज़ !`
~s-roz~
 
 

Friday, May 18, 2012

"मेरा वजूद, "

गर मेरा वजूद,
वो पत्थर है !
जो आधी ऊपर पड़ी,
आधी जमीन में गड़ी हो!
जिससे हर रहगुज़र ठोकर खाए
और ठोकर मार जाय !
तो ऐसे में "मैं "......
या तो गड़ ही जाउंगी
या उखड़ ही जाउंगी
पर इतना तय है ...
.ना ठोकर खाऊँगी
और ना ठोकर लगाउंगी !!
~s-roz ~

Sunday, May 13, 2012

"माँ की कोई परिभाषा नहीं होती "

माँ की कोई परिभाषा नहीं होती
माँ तो बस माँ होती है ..

कहते हैं माँ अपनी संतानों के लिए ही जीती है
जबसे वो माँ बनती है ,बच्चे का जीवन ही उसका जीवन होता है
वो स्वयं को भूल उनके सुख सपने संजोती है
... माँ की कोई परिभाषा नहीं होती
माँ तो बस माँ होती है ..

कहते हैं माँ से बढ़कर पालनहार कोई नहीं
अपनी आँचल की छावं में हर सुख वो देती है
रातों को हमें सूखे में सुलाकर खुद गीले में सोती है
माँ की कोई परिभाषा नहीं होती
माँ तो बस माँ होती है ..

कहते हैं माँ ईश्वर होती है
किसने देखा है हमें कठिनाइयों में देख ईश्वर रोता है
मैंने देखा है हमें कष्ट में देख, अकेले में माँ रोती है
माँ की कोई परिभाषा नहीं होती
माँ तो बस माँ होती है ..

कहते हैं माँ की पदवी पिता से ऊँची होती है
किसी एक दिन कमर में कोई बोझ बांध सारे दिन काम कर के देखो
बदन किस क़दर टूटता है ,इक माँ है जो हमें नौ महीने ढोती है !
माँ की कोई परिभाषा नहीं होती
माँ तो बस माँ होती है ..

कहते हैं माँ से बढ़कर दाता कोई नहीं
अपने बेटे की इच्छा पूरी करने की खातिर
अपना कलेजा तक भी काढ कर देती है
माँ की कोई परिभाषा नहीं होती
माँ तो बस माँ होती है !
~s-roz ~जगत की सभी माताओं को नमन !!

Tuesday, May 8, 2012

"लफ्ज़ और नाखून "

आज! अपने बढ़े हुए नाखूनों को देख
यक बा यक,जेहन में ,
यह ख्याल उभरा के......
'लफ्ज़' भी नाखून ही होते हैं
बेहतर है इन्हें तराश कर रखना
वरना,ये औरों को तो चुभते ही हैं
अलबत्ते, खाने के साथ
खुद की गन्दगी ...........
जबां के भीतर ही जाती है !
~s-roz ~
 

Sunday, April 29, 2012

Re: "मुद्दत हुई "


On Wed, Oct 5, 2011 at 1:25 PM, saroj singh <sarojdeva28@gmail.com> wrote:
बहुत मशरूफ सा रहने लगा है या के कोई रंज है
मुद्दत हुई कायदे से कोई हिचकी आए!
ना आफताब निकला,ना शमा जली ना ही चाँद है
मुद्दत हुई कायदे से घर में रौशनी आए !
ना ही दिलखुश मंजर है,ना ही तेरी गुलज़ार बातें हैं
मुद्दत हुई कायदे से लब पे कोई हँसी आए!
रुसवा जो हुई ख़ुशी मेरे दर से और रातें भी ग़मगीन है
मुद्दत हुई कायदे से मेरी जिंदगी में जिंदगी आए !
~~~S-ROZ~~~


Tuesday, April 24, 2012

"पाँव नंगे चप्पल है सरपर"

कमाऊ बेटे से
माँ की फटी एडियाँ,रुखी दरारें
शायद देखी ना गयीं होंगी ...........
सो ले आया उसके लिए
एक जोड़ी गुलाबी चप्पल
पर जिसने ता-जिंदगी नंगे पाँव बोझा ढोते काट दी हो
अपना सुख- श्रृंगार अपने परिवार में बाँट दी हो
भला वो चप्पल उसका दुःख कैसे बाँट सकता है
वो तो बस उसके पैरों को काट सकता है
फिर भी बेटे के सकून को वो .....
रोज घर से निकलती है चप्पल पहन कर
कुछ दूर चल कर चप्पलों को धर लेती है सर पर
वो चप्पल उसके बोझ में इक इजाफा सा है
पर बेटे की ख़ुशी के आगे वो बिलकुल जरा सा है
~s-roz ~

Friday, February 10, 2012

"कुछ मुख्तलिफ से "अश आर "

यूँ कब तलक बसोगे, खफा की, खारदार वादियों में
तुझको  छूकर, आने वाळी हवा भी  बेहद  जख्मी है
~~~S-ROZ~~~
 मै खामोश समंदर,कैसे ना करूँ तूफां की आरजू
वो ही इक शय है ,जो तेरे होने के गुमां देता है
~~~S-ROZ ~~~
ये "दिल"खुद के रोने पे अफ़सोस तक नहीं करता
गर ,जो "वो" रो दे तो कमबख्त बैठ सा जाता है
~~~S-ROZ ~~~
तुम्हे मकानों की आरजू थी , मेरी तमन्ना थी एक घर की
मकानों के मालिक तुम बन गए,रहे तरसते हम इक घर को 
~~~S-ROZ ~~~
हम तो समझे थे के वो "रब" के हैं
अरे धत्त!वो तो बस "मजहब" के हैं
~~~S-ROZ ~~~
वो जब तलक उड़ता रहा हाथो ही हाथ रहा
कटकर जो उलझ गया,अब कोई पूछता नहीं
~~~S-ROZ ~~~

Sunday, February 5, 2012

"टूटी हुयी मूरत "

एक ढेले की मिटटी लेकर
बेमानी को मानी देकर
बना डाली,मूरत प्यार की
मुक़द्दस दिल में उसे बसाया भी
बड़ी शिद्दत से उसे पूजा भी
जाने कैसे तो .........
बीती शब् की आंधी में
कुछ तो टूटा उसका
दिल था शायद .............
हो सके तो उसे
दरिया में दफना देना
क्यूंकि,.....टूटी हुयी मूरत !
इबादत के काबिल नहीं होती !
~~~S-ROZ~~~

Friday, February 3, 2012

"रिश्ते और कपडे "

"रिश्तों के मैले कपडे आजकल
अना की वाशिंग मशीन में धुलते हैं
जो  साफ तो हो जातें  हैं
पर कुछ चक़त्ते  रह जाते हैं
जिन्हें "सब्र हाथों" से ही रगड़कर
साफ करना होता है
मशीन से धुले कपड़ों में,
शिकवे ,शिकायतों की
शिकनें भी बहुत पड़तीं है
जो शिद्दत  की हलकी इस्त्री से
मिटती भी नहीं .....
बहरहाल ...........
दिल की तसल्ली को
कपडे बदल भी दें
मगर रिश्तों को कैसे ........?
~~~S -ROZ ~~~
 

Wednesday, February 1, 2012

मेरी मुक्ति का दिवस

तुम्हारी प्रेमपूरित पृथ्वी से
प्रेम की आकांक्षा में
प्रेमहीन.!.......जब मेरी
विदा लेने की घडी आएगी
तब मै निशब्द,निःसंकोच
चिर विदा लुंगी
बाद मेरे ............
कही कुछ नहीं बदलेगा
रह जायेगा तो
कुछ विशेषण!
निर्बाध गति से ......
चलने वाळी
इस जीवन धारा में
एक क्षण ऐसा आएगा
जब, तुम्हे मेरा स्मरण होगा
तब तुम,मेरे संजोये
किसी एक स्वप्न को,
याद कर लेना !
और तुम्हारे प्रांगण से,
कभी कोई फूल झर कर
तुम्हारे चरणों में आ गिरे
उसे तुम चूमकर,
दृदय से लगा लेना
और कहना...............,
प्रिय,मैंने तुम्हे पा लिया!
वह मेरा श्राद्ध होगा
मेरी मुक्ति का दिवस !
~~~~S -ROZ ~~~

Monday, January 30, 2012

"सुन ए अर्जुन ......!"

हर मनुष्य का जीवन
महाभारत से कम नहीं
अंतर , मात्र यह है कि......
वह स्वयं  ही कौरव ,स्वयं ही पांडव है
स्वयं  ही कृष्ण और स्वयं ही अर्जुन है
स्वयं कर्म  रथ पर बैठता है
और स्वयं  ही उसे चलाकर
जीवन के युद्धक्षेत्र  में ले जाता  है
और अंगुल उठा  कहता है
सुन ए अर्जुन ......!
युद्धोपरांत ..........वाह
विजय नहीं प्राप्त कर पाता  
कारण मात्र इतना है कि, वह
अंगुल स्वयं की ओर इंगित नहीं करता
~~~S-ROZ ~~~
 
 

Friday, January 20, 2012

गुलज़ार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल २०१२

 जयपुर लिट्रेचेर फेस्टिवल में आज "गुलज़ार" को देखना, सुनना और मिलना ..एक ख्वाब से कम नहीं ...जिंदगी को मानी मिल जाये जैसे .......!!और उनकी नज़मों पर चार चाँद तब लग गया जब श्री पवन k वर्मा जी ने साथ साथ उनकी नज़मों का अंग्रेजी अनुवाद भी सुनाया ...वाकई यादगार दिन रहा आज !किसी ने उनसे पूछा के आप नज़्म कैसे लिखते है ,आपको सूझती कैसे है .....?
उनके जवाब की खूबसूरती देखिये
"लम्हों पर बैठी नज़मों को
तितली जाल में बंद कर लेना
फिर काट के पर उन नज़मों को
अल्बम में पिन करते रहना
ये जुल्म नहीं तो और क्या है
लम्हे कागज पर गिरके
ममिया जाते हैं (गुलज़ार)
.
तुम्हारे शहर(न्यू योर्क) में ए दोस्त
 
तुम्हारे शहर में ए दोस्त
क्यूँकर चीटीओं  के घर नहीं  हैं
कच्चे फर्श पर चीनी भी डाली
पर कोई चीटी नजर नहीं आई
हमारे गावं में तो आता डालते हैं
अगर कतार नजर आ जाये  तो
तुम्हारे यहाँ तो दीवारों में  सीलन भी नहीं है
दरारें भी नहीं पड़ती ......
हमारे यहाँ तो दस दिन के लिए
परनाला गिरता है तो
उस दीवार से पीपल की डाली फूट पड़ती है
गरीबी की मुझे आदत पड़ी है
या मैं तुम पर रश्क करता हूँ
तुम्हारे शहर  की नकलें  हमारे यहाँ
महानगरों में होने लगी है
मगर कमबख्त आबादी बड़ी बरसाती होती है
यहाँ न्यूयोर्क  में कीड़े मकोडो की कभी नस्लें नहीं बढती
सड़क पर गर्द भी उडती नहीं देखी
मेरा गावं बड़ा पिछड़ा हुआ है
मेरे आँगन के बरगद पर
सुबह कितनी तरह के पंछी आते हैं
वो नालायक वही खाते हैं दाना
और वहीँ पर बीट करते हैं
तुम्हारे शहर में कुछ रोज़ रह लूं तो
अपना गावं हिन्दुस्तान मुझको याद आता है !