कुछ बडी होती लकीरें पर क्या इन्सनियत के रुबरु कभी इन्सानो को मापा है?
इन्सानो की माप शायद कद से नही होती ,
मैने इस भीड मे ऐसे कई कद्दावर बौने देखे है जो गरीबों के घर जलाते ,
महिलाओं को बे आबरू करते
मानवता का खून करते निशछंद घुमते हैं
जो कद मे तो बहुत लम्बे हैं पर ना जाने क्यु दिखते बौने हैं "
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"रेल की इक पटरी ने दुसरी से कहा "क्या हमारा मिलन कभी सम्भव है?"
दुसरी ने जवाब दिया "कभी नही ",
"हम मात्र पटरियाँ ही नही ....."..
राह्गीरों को उनकी मन्जिल तक पहुचाते भी है ",
यदि हमारा मिलन हुआ तो ये अपनो से हमेशा के लिए बिछड जाएंगे ...... .
इससे बेहतर है के हम कभी ना मिले ......"
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"आहें भरोगे ,आवाज दोगे ...
कोइ ना होगा पास तुम्हारे ,
आवाज तुम्हारी ही तुम तक लौट के आएगी ,
दर्दोगम की साथी बन तुम्हारे मर्म सहलायेगी,
क्युकी ....................
अपनों से भरी दुनिया मे आपक़ा अपने सिवा "अपना" कोइ नही होता "
कोइ ना होगा पास तुम्हारे ,
आवाज तुम्हारी ही तुम तक लौट के आएगी ,
दर्दोगम की साथी बन तुम्हारे मर्म सहलायेगी,
क्युकी ....................
अपनों से भरी दुनिया मे आपक़ा अपने सिवा "अपना" कोइ नही होता "
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"हम त जल के मछरिया हमरे लोरवा देखि के?
भैया जनमले थरिया बाजल,हमके जिए दिही के ?
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.कन्या भ्रूण को पैदा होने से पहले ही मार देना प्रगतिशीलता की देन है जिसे तकनीकी तरक्की ने आसान बना दिया है. लोग उसी डाल को काट रहे हैं जिस पर बैठे हैं. मूर्खता ही नहीं यह एक शर्मनाक कर्म है. इंसान के बनाये कानून का ही उल्लंघन ही नहीं, ख...ुदा के कानून का भी उल्लंघन है
भैया जनमले थरिया बाजल,हमके जिए दिही के ?
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.कन्या भ्रूण को पैदा होने से पहले ही मार देना प्रगतिशीलता की देन है जिसे तकनीकी तरक्की ने आसान बना दिया है. लोग उसी डाल को काट रहे हैं जिस पर बैठे हैं. मूर्खता ही नहीं यह एक शर्मनाक कर्म है. इंसान के बनाये कानून का ही उल्लंघन ही नहीं, ख...ुदा के कानून का भी उल्लंघन है
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"गम के सहरा मे,मुट्ठी भर रेत सी खुशी,
संभाले ना सम्भाली गई
"बचे थे कुछ जर्रे मुट्ठी मे
सोचा क्यु कैद करु इन्हे
सो उन्हे भी निजात मिल गई "
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हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
बहुत सुंदर मार्मिक और सन्देश भी
ReplyDeleteसुन्दर मार्मिक लेख है|
ReplyDeletebhaut acha laga apke blog par aakar...
ReplyDeletebhn sroj ji bhut thik likhaa he khud kaa drd khud hi shnaa pdhta he isi liyen to hm akhtar khan akela hen. akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteआपकी आज चर्चा समयचक्र पर...
ReplyDeleteexcellent
ReplyDeletebhn sroj ji mere blog pr aane ke liyen dhnyvaad men jaanta hun a men aap se ablog ke maamle me achchaa lekhn kese kren iske tips letaa rhungaa. akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसरोज जी,
ReplyDelete"हम वो पत्थर हैं जो गहरे गढ़े रहे बुनियादों में,
शायद तुमको नज़र न आये, इसीलिए मीनारों में,"
एक लफ्ज़ सिर्फ सुभानाल्लाह ..............दिल जीत लिया आपने इतना कहके वाह...वाह........बहुत ही खूबसूरती से अहसासों को लफ्जों में पिरोया है आपने ....आपका लिखने का अंदाज़ बहुत पसंद आया...........इस उम्मीद में के आगे भी ऐसे ही खुबसूरत जज़्बात मिलेंगे ....इसलिए आपको फॉलो कर रहा हूँ.......शुभकामनाये|
कभी फुरसत मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आयिए -
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आदरणीय सरोज जी,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, संवेदनशील, कडवा सच और सही अन्दाज में, सलीके से अपनी बात कहने की कला में महारत हासिल करके आप साहित्य सृजन में योगदान कर रही हैं। जिसके लिये मानव समाज को आपका ॠणी होना होगा।
आप अच्छी लेखिका हैं। नौकरी से अधिक समाज की कडवी सच्चाईयों को अभिव्यक्ति देना जरूरी है।
यदि परिवार को चलाने के लिये आर्थिक संसाधन अपर्याप्त हों तो ही सोचें, अन्यथा अपने बच्चों के सही समाजीकरण के लिये आप अपना योगदान करें।
बेशक आज के समय में स्त्रियों में अनेकानेक कारणों से नौकरी के प्रति अगाध लगाव है, लेकिन स्त्री के स्त्रैण गुणों को अवरुद्ध करके चुकायी जाने वाली कीमत पर नौकरी का चुनाव दु:खद आश्चर्य है।
शुभकामनाओं सहित।
शुभाकांक्षी
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
bahut khub...
ReplyDeleteyun hi likhte rahein....
hamare blog par bhi aapka swagat hai.....
आपका लिखने का अंदाज़ बहुत पसंद आया....
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