अधूरे ख्वाब
"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "
विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....
Saturday, April 24, 2010
मेरा पसंदीदा संग्रह....
"दायरा" काफी आजमी जी कि लिखी हुए जो मुझे बहुत पसंद है ....
"रोज़ बढ़ता हूँ जहा से आगे ,फिर वही लौट के आ जाता हूँ
बारहा तोड़ चूका हूँ जिनको ,उन्ही दीवारों से टकराता हूँ '
रोज़ बसते हैं कई शहर नए,रोज़ धरती में समां जाते हैं
जलजले में थी जरा सी गर्मी,वो भी अब रोज़ आ जाते हैं
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत,ना कही धुप ना साया ना सराब
कितने अरमान हैं किस सहरा में ,कोन रखता है मजारों का हिसाब
नब्ज़ बुझती भी भड़कती भी है ,दिल का मामुल है घबराना भी
रात अँधेरे ने अँधेरे से कहा .एक आदत है जिए जाना भी
कौस एक रंग कि होती है तुलुए,एक ही चाल भी पैमाने कि
गोशे गोशे में खड़ी है मस्जिद,शक्ल क्या हो गई मैखाने कि
कोई कहता है समंदर हु मै ,और मेरी जेब में कतरा भी नहीं
खैरियत अपनी लिखा करता हु अब तो तकदीरका खतरा भीनहीं
अपनी हाथों को पढ़ा करता हु,कभी कुरान कभी गीता कि तरह
चंद रेखाओं में सीमाओं में ,जिंदगी क़ैद है सीता कि तरह
राम कब लौटेंगे,मालूम नहीं,काश रावण ही कोई आ जाता .....
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
"रोज़ बढ़ता हूँ जहा से आगे ,फिर वही लौट के आ जाता हूँ
ReplyDeleteबारहा तोड़ चूका हूँ जिनको ,उन्ही दीवारों से टकराता हूँ..."
कैफ़ी आजमी साहब की कृति "दायरा" पढवाने के लिए आभार.