चैत में चित पड़ीं हुई हैं ज़र्द पत्तियां
शाखों पर सब्ज़ कोपलें
ले रही हैं अंगड़ाइयां
बिरहन हवा के आंचल में
क़ैद हुए ज़र्द पत्ते
शोर-ओ-गुल में मुब्तला हैं
शायद अपने आखिरी अंजाम से डरते हैं
उन्हें अब हवा की ज़द में ही
सोना और जगना है
अपने दर्द को ज़ब्त कर
सर्द रातों में सुलगना है
सूरज के सुनहले गेसू
हर जगह तारी है
हवा औ सूरज में
कानाफूसी जारी है
जो हौले से
मेरे कानों को जतलाता है
बैसाख आने को है
ये बतलाता है
बैसाख के अंगने में
गेहूं की बालियाँ
पककर सुनहली हो चलीं हैं ....
वाक़ई ! बाज़ार में
ये बालियाँ सोने की हो जायेंगी
ललचाता सा मेरा किसान दिल
हिदायती लह्ज़े में मुझसे कहता है
"रोज़! सहेज लेना सोने की बालियाँ
बेटी के ब्याह को काम आएँगी !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 18 अप्रैल 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आपका यशोदा जी
Deleteबहुत खूब...सहेज लेना सोने की बालियाँ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार वाणभट्ट जी
Deleteवाह - बहुत खूब
ReplyDeleteहार्दिक आभार राकेश जी
Deleteहार्दिक आभार राकेश जी
Deleteहार्दिक आभार राकेश जी
Deleteहार्दिक आभार राकेश जी
Deleteunbeatable
ReplyDeletedirect selling marketing mile stone for every youngster
ReplyDeleteअति सुंदर, कवयित्री को बधाईयां
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