अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Friday, January 20, 2012

गुलज़ार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल २०१२

 जयपुर लिट्रेचेर फेस्टिवल में आज "गुलज़ार" को देखना, सुनना और मिलना ..एक ख्वाब से कम नहीं ...जिंदगी को मानी मिल जाये जैसे .......!!और उनकी नज़मों पर चार चाँद तब लग गया जब श्री पवन k वर्मा जी ने साथ साथ उनकी नज़मों का अंग्रेजी अनुवाद भी सुनाया ...वाकई यादगार दिन रहा आज !किसी ने उनसे पूछा के आप नज़्म कैसे लिखते है ,आपको सूझती कैसे है .....?
उनके जवाब की खूबसूरती देखिये
"लम्हों पर बैठी नज़मों को
तितली जाल में बंद कर लेना
फिर काट के पर उन नज़मों को
अल्बम में पिन करते रहना
ये जुल्म नहीं तो और क्या है
लम्हे कागज पर गिरके
ममिया जाते हैं (गुलज़ार)
.
तुम्हारे शहर(न्यू योर्क) में ए दोस्त
 
तुम्हारे शहर में ए दोस्त
क्यूँकर चीटीओं  के घर नहीं  हैं
कच्चे फर्श पर चीनी भी डाली
पर कोई चीटी नजर नहीं आई
हमारे गावं में तो आता डालते हैं
अगर कतार नजर आ जाये  तो
तुम्हारे यहाँ तो दीवारों में  सीलन भी नहीं है
दरारें भी नहीं पड़ती ......
हमारे यहाँ तो दस दिन के लिए
परनाला गिरता है तो
उस दीवार से पीपल की डाली फूट पड़ती है
गरीबी की मुझे आदत पड़ी है
या मैं तुम पर रश्क करता हूँ
तुम्हारे शहर  की नकलें  हमारे यहाँ
महानगरों में होने लगी है
मगर कमबख्त आबादी बड़ी बरसाती होती है
यहाँ न्यूयोर्क  में कीड़े मकोडो की कभी नस्लें नहीं बढती
सड़क पर गर्द भी उडती नहीं देखी
मेरा गावं बड़ा पिछड़ा हुआ है
मेरे आँगन के बरगद पर
सुबह कितनी तरह के पंछी आते हैं
वो नालायक वही खाते हैं दाना
और वहीँ पर बीट करते हैं
तुम्हारे शहर में कुछ रोज़ रह लूं तो
अपना गावं हिन्दुस्तान मुझको याद आता है !

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