तालीम-ओ-तर्बीयत नहीं बसती उनके बस्ते में !
है तो बस भूख,गरीबी,जुर्म,ज़लालत उनके बस्ते में !!
हाथ जख्मी और मैले हो जातें हैं कचरे में उनकें !
रद्दी के साथ हैं ख्वाब भरे तितलियों के पर भी उनके बस्ते में !!
अलसुबह जो बाँटते हैं अखबार पढने को घरो में !
नहीं मिलती वर्णमाला की कोई पुस्तक उनके बस्ते में !!
ढाबों में लज़ीज़ खानों के नाम जुबानी याद है जिन्हें !
दो जून की सूखी रोटियां भी नहीं अटती उनके बस्ते में !!
गर्म जोशी से कागजों पर निपटाए जाते हैं तालीमी मस,अले:!
बाद उसके वो कागजें हो जाती हैं बिलकुल ठंडी उनके बस्ते में !!
~S-roz~
सच लिखा है ... अपने समाज के इस दोष को सभी ने मिल के दूर करना होगा ... अच्छी रचना है ..
ReplyDeleteनमन एवं आभार दिगंबर जी !!
Deleteहाथ जख्मी और मैले हो जातें हैं कचरे में उनकें !
ReplyDeleteशानदार....तजुर्बेकार कलम से निकली ग़ज़ल....
इसे मैं ले जा रही हूँ..नई-पुरानी हलचल में मिल-बैठ कर पढ़ेंगे
आप भी आइये न, नई-पुरानी हलचल में, इसी बुधवार को
जी जरुर यशोधरा जी हार्दिक आभार आपका !!
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
वाह...
ReplyDeleteबहुत गहन बात कही है.....
ReplyDeleteरचना दिल को छूती है..और उद्वेलित भी करती है...
अनु
सोचने पर मजबूर कराती हुई रचना..बहुत खूब |
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती गज़ल ।
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