यूँ कब तलक बसोगे, खफा की, खारदार वादियों में
तुझको छूकर, आने वाळी हवा भी बेहद जख्मी है
~~~S-ROZ~~~
मै खामोश समंदर,कैसे ना करूँ तूफां की आरजू
वो ही इक शय है ,जो तेरे होने के गुमां देता है
~~~S-ROZ ~~~
वो ही इक शय है ,जो तेरे होने के गुमां देता है
~~~S-ROZ ~~~
ये "दिल"खुद के रोने पे अफ़सोस तक नहीं करता
गर ,जो "वो" रो दे तो कमबख्त बैठ सा जाता है
~~~S-ROZ ~~~
गर ,जो "वो" रो दे तो कमबख्त बैठ सा जाता है
~~~S-ROZ ~~~
तुम्हे मकानों की आरजू थी , मेरी तमन्ना थी एक घर की
मकानों के मालिक तुम बन गए,रहे तरसते हम इक घर को
~~~S-ROZ ~~~
मकानों के मालिक तुम बन गए,रहे तरसते हम इक घर को
~~~S-ROZ ~~~
हम तो समझे थे के वो "रब" के हैं
अरे धत्त!वो तो बस "मजहब" के हैं
~~~S-ROZ ~~~
अरे धत्त!वो तो बस "मजहब" के हैं
~~~S-ROZ ~~~
वो जब तलक उड़ता रहा हाथो ही हाथ रहा
कटकर जो उलझ गया,अब कोई पूछता नहीं
~~~S-ROZ ~~~
कटकर जो उलझ गया,अब कोई पूछता नहीं
~~~S-ROZ ~~~
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवो जब तलक उड़ता रहा हाथो ही हाथ रहा
ReplyDeleteकटकर जो उलझ गया,अब कोई पूछता नहीं ...यही इस दुनिया का सच है,चढ़ते सूरज को हर कोई प्रणाम करता है.
सरोज जी...पहुँच गयी आपके घर...:)....सुनीता पाण्डेय
ReplyDeleteहम तो समझे थे के वो "रब" के हैं
ReplyDeleteअरे धत्त!वो तो बस "मजहब" के हैं
बहुत खूब..
सादर
हर एक अशआर बेहतरीन...लाजवाब!!
ReplyDeleteवाह..........................
ReplyDeleteबहुत खूब ...............
बेहतरीन रचना.
अनु