सुलझी बाते ही आजकल बहुत उलझी रहती है "रोज़"
इसलिए अब कोई इन बातों में जल्दी उलझता नहीं
इसलिए अब कोई इन बातों में जल्दी उलझता नहीं
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ये फरेब आइनों का शहर है "रोज़" !
एक चेहरे में कई चेहरे नजर आते हैं
एक चेहरे में कई चेहरे नजर आते हैं
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मेरी नजर तो है पर नजर की परख कहाँ
मैं जानती हूँ, हर जगह है तू, मगर कहाँ ?
मैं जानती हूँ, हर जगह है तू, मगर कहाँ ?
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फिजां की नब्ज़ नब्ज़ भांप लेते हैं बड़े एहतियात से
मगर हजरत से दिल की धड़कन पहचानी नहीं जाती
मगर हजरत से दिल की धड़कन पहचानी नहीं जाती
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उनके जुल्म की लाइंतहांइयां अज़ाब हैं
और मेरे सब्र का जौहर बे-हिसाब है !
(लाइंतहांइयां=असीमिततायें )
और मेरे सब्र का जौहर बे-हिसाब है !
(लाइंतहांइयां=असीमिततायें )
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हर दफे सुनाते हो बीते कल की दास्ताँ हमें
है जो रब्त हमसे तो आज की बात सुना मुझे
है जो रब्त हमसे तो आज की बात सुना मुझे
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चोट खा कर जो अभी गिरे हैं, हमें उठाये ना कोई
गिर कर जो खुद उठता है फिर यूँ गिरता नहीं कभी
गिर कर जो खुद उठता है फिर यूँ गिरता नहीं कभी
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इससे पहले के रुख बदले ये हवा और वो नजर"रोज़"
बेहतर है, उससे पहले अपने घर लौट जाना महफूज़
बेहतर है, उससे पहले अपने घर लौट जाना महफूज़
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जिंदगी तो इन्ही ख्वाबों में वाबस्ता है
वरना "रोज़" यहाँ जीना कौन चाहेता है
~S-roz~
वरना "रोज़" यहाँ जीना कौन चाहेता है
~S-roz~
हर दफे सुनाते हो बीते कल की दास्ताँ हमें
ReplyDeleteहै जो रब्त हमसे तो आज की बात सुना मुझे... waah
हार्दिक आभार रश्मि प्रभा जी
Deleteबेहतरीन ग़ज़ल....
ReplyDeleteहार्दिक आभार सुषमा जी!!
Deleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार संगीता जी!
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