वो तो फ़क़त "बोहनी" हैं "
आलम वो हो के,
'कलम' चले कागज़ पे और हर्फ़ उभरे दिलों में ....
मुझे वो 'बाट जोहनी' है"
~~~S-ROZ~~~
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"अब किसी की 'कारगुजारी' बुरी नज़र नहीं आती...'ज़माने' में
जब से नज़र डाली है हमने, अपने.... 'दस्ताने' में "
~~~S-ROZ~~~
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"इत्तेफाकन जो हस लिए थे साथ ..............
"चंद लम्हात की ख़ुशी के लिए ...............
"बाद उसके इंतकामन उदास रहे ".........
~~~S-ROZ~~~
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"हम मगरूर थे अपने 'मेयार' पे इस 'क़दर'
औरों की मजबूरियां न आयीं कभी 'नज़र'
काश के समय रहते हो जाती इसकी 'खबर'
के, 'पत्थर' को 'पानी' काट देता है, अक्सर"
~~~~S-ROZ ~~~~
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"थाली में जितना हम 'जूठन' छोड़ते हैं
मुला! उतने में ही कितने निबाह करते हैं
जो पुराने कपडे के बदल हम बर्तन खरीदते हैं
उतने में ही कई, ओढ़ते बिछाते,पहिनते हैं "
"मुला! उतने में ही कितने निबाह करते हैं
जो पुराने कपडे के बदल हम बर्तन खरीदते हैं
उतने में ही कई, ओढ़ते बिछाते,पहिनते हैं "
~~~S-ROZ~~~
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सरोज जी,
ReplyDeleteसबसे बढ़िया आखिरी वाला था पर उसका अंत अजीब सा था.....हो सके तो इसमें सुधार करें|