"सुहागिनों के सुहाग का व्रत
उस सुहागन ने भी बड़े अरमानो से
हाथों में मेहँदी रचाए ,गजरा सजाए ,
छत पर उतावली सी किसी की प्रतीक्षा थी ,
उधर चाँद भी निकलने को था, तभी
फोन की घंटी बजी,झट उसने फोन उठाया
मानों इसी की उसे प्रतीक्षा थी
उधर से आवाज आई ,प्रिये !!
मै, नहीं आ सका ,मुझे बहुत खेद है "
तुम जानती हो इसमें भी एक भेद है
मुश्किल घडी में उसे कैसे छोड़ सकता हूँ
अपने फ़र्ज़ से मै कैसे मुह मोड़ सकता हूँ
मै तुम्हारा 'करवाचौथ' हूँ ,
तो वो मेरा 'करवाचौथ' है,
तुम मेरी 'प्रतीक्षा' करती हो ,
मै उसकी 'रक्षा' करता हूँ
तुम एक सुहाग की चिरायु की कमाना करती हो,
मै कई सुहागों की चिरायु होने का वचन भरता हूँ
तुम मेहंदी अपने हाथों में रचाती हो
मै सीने पर लहू की मेहंदी रचाता हूँ
वो गर्व से मुस्काई ,बोली प्यारे!
तुम ना आये!इसका मुझे दुःख नहीं,
तुम मेरे पति हो इससे बड़ा कोई सुख नहीं
देखो प्रियतम! बाहर 'चाँद' निकल आया है
मै भी उसको तकती हूँ तुम भी उसको ताको
हमदोनो प्रतिबिंबित हो देख लेंगे एक दूजे को
मेरा व्रत तो पानी पीकर शीघ्र शेष हो जायेगा
तुम अपना व्रत तोड़ ,दुश्मनों को पानी पिला
घर जल्दी वापस आ जाना
घर जल्दी वापस आ जाओ ...............
बहुत बढिया !!
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