बकईयाँ चलने से लेकर
किशोर वय तलक ......
दरवाज़े के उसपार जाने से पहले ही
पीछे से इक आवाज़ उभर आती
"हां.. हां ...चौउखट संभार के "
जो चोट तब घुटने में लगती
किशोर वय में वोही चोट
दिल पर उभर आती
उफ़ !! वो चौखट ...
और उसे पार करने की सौ हिदायतें
फिर इसी चौखट को पराया करार कर देना
और किसी अजनबी चौखट पर
हिदायतों का खोइंछा बाँध
विदा करना और यह कहना कि
"इस चौखट पर डोली उतरीं है
अब अर्थी भी यही से उठेगी"
चौखट के दायरे को पहाड़ बना देती
अब, माँ जब मेरी किशोर होती
बेटी की अल्हड़ता देखती है
तब चिंता पूर्ण स्वर में कहती है
" बेटी, अब ये बच्ची नहीं रही
इसे अब कुछ सऊर सिखाओ
नहीं तो कभी भी ठोकर खा जाएगी "
और मैं मुस्कुराते हुए
माँ का हाथ हौले से दबा कर कहती हूँ ..
"माँ ! अबके घरों में चौखटें नहीं होती
इसलिए अब वो मजे से लांघ जातीं हैं एवरेस्ट भी "
और फिर माँ की गहरी चिंता,
हलकी मुस्कान में बदल जाती है !!
~s-roz~
बकईयाँ=crawling
खोइंछा =दुल्हन या सुहागिन को विदाई के समय शुभ-मंगल दायनी स्वरूप उनके आँचल में हल्दी,दूब.और चावल दिया जाता है !
माँ ! अबके घरों में चौखटें नहीं होती
ReplyDeleteइसलिए अब वो मजे से लांघ जातीं हैं एवरेस्ट भी "
और फिर माँ की गहरी चिंता,
हलकी मुस्कान में बदल जाती है !!....(Y)
सादर आभार उपासना जी
Deletesunder saroj jee
ReplyDeleteआभार मनु जी
Deleteइसलिए अब वो मजे से लांघ जातीं हैं एवरेस्ट भी.
ReplyDelete- एक बहुत ही महत्वपूर्ण लाइन, लेकिन यह भी एक सच है कि चौखटें अब घरों से निकल कर चौराहें, मोहल्ले, नुक्कड़ और हर जगह फैलकर एवरेस्ट सी ऊँची बन गयीं हैं, हाँ सच है कि आज वो मजे से लाँघ जाती है एवरेस्ट को भी, लेकिन घरों से निकालकर चौराहे, नुक्कड़ों और मोहल्ले में फैले इन एवरेस्टों को वो हर पल अपने अंदर जीती है, और तोड़ देना चाहती है चौखटों के उभर आये इस पहाड़ को, लेकिन अभिशप्तता इतनी आसान कहाँ होती है दीदी? कम स कम पहले घर की चौखट के बाद कुछ नहीं होता था, लेकिन अब....... अब तो अदृश्य सा यह साथ साथ चलता है.
सुन्दर समीक्षा के लिए शुक्रिया नीरज
Deleteसुन्दर और मनोहारी रचना.
ReplyDeleteनूतन वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं सहित,
अनिल साहू
हिंदी में प्रेरणादायक कहानियाँ और आलेख
अर्थपूर्ण कवितायें हैं आपकी ....बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार वंदना जी
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