हमारे दरमियाँ
लम्हा दर लम्हा
अल्फाज़ का
इक पुल सा
बना जाता है
मैं इस छोर पर
किस ओर हूँ
नहीं जानती
मेरे लिए तो
रोज़ अलसुबह
"सूरज".....
पुल के उस छोर से ही
निकलता है !
लम्हा दर लम्हा
अल्फाज़ का
इक पुल सा
बना जाता है
मैं इस छोर पर
किस ओर हूँ
नहीं जानती
मेरे लिए तो
रोज़ अलसुबह
"सूरज".....
पुल के उस छोर से ही
निकलता है !
खुद को भी कोई जगाता है...अल्फाज़ पुल के उस पार से ही आते हैं...सुप्रभात...
ReplyDeleteसुप्रभात एवं आभार वाण भट्ट जी
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