अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Sunday, July 7, 2013

"कुचलो या कुचले जाओगे"

शहरों की भीड़
भीड़ भरी सड़कें
सिमट कर चलते लोग
मंजिल की होड़ में औरों को
तेजी से,पीछे छोड़ते लोग
नज़रें बगल नहीं देखती
और नहीं, ज़मीं देखती हैं
फलक का चमकता सितारा
है मंजिल सभी का
उसी भीड़ के,
हम भी एक हिस्से थे
कुछ दूर ही चल पाए थे
तभी ज़मीर ने झकझोरा
ये किसके ऊपर चल रहे हो ?
जरा देखो तो,
किसको कुचल रहे हो ?
नज़रें ज्यों ही झुकाईं
तो देखा,हम जिस्मों पर चल रहे हैं
सर-ए-राह को मक़तल कर रहे हैं
इक पल को हम,
ये अभी सोच ही रहे थे
अचानक पीछे से तेज़ झोंका आया
और, अगले ही पल
हमने खुद को मंज़िल पे पाया
इस जीत की ख़ुशी हम मनाते
के तभी नजर, आती हुई भीड़ के क़दमों पर गयी
देखा के उन जिस्मों में
मेरा जिस्म भी कुचला जा रहा है
जो रुका नहीं तेज है,
वही बच के चला आ रहा है
अफ़सोस हमें रुकने का नहीं है
पर यूँ मज़िल पर पहुंचना क्या सही है ?
भीड़ तो चीटियों की भी होती है
पर वो क़तार बांध चलती है
"कुचलो या कुचले जाओगे "
ये फलसफा आलिम इंसानों ने बनाए हैं !!
~S-roz~

17 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [08.07.2013]
    चर्चामंच 1300 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
    सादर
    सरिता भाटिया

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    1. सरिता .इस चर्चा के लिए मैं तहे दिल से शुक्रिया अदा करती हूँ !

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  2. विचारणीय .... अच्छी प्रस्तुति

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    1. आदरणीय संगीता जी, आपके स्नेह एवं मार्गदर्शन की आभारी हूँ

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    1. सादर आभार संजय जी ,

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  4. बहुत अच्छी और सार्थक रचना....

    अनु

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    1. सादर आभार अनु जी !!

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  5. "बेशक जुरुरी हो गया है खंजर निकालिए,हौश्लों को धर दे कुछ आजमाईये " बेहतरीन

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    1. अजीज़ जौनपुरी जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका !

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  6. सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत बधाई आपको .

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    1. सादर आभार मदन मोहन जी !

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  7. सुंदर भावपूर्ण और गंभीर प्रस्तुति. सार्थक लेखन के लिए बधाई.

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    1. सादर आभार रचना जी !

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  8. This comment has been removed by the author.

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