अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Saturday, February 22, 2014

मन के फागुन से लाइव .....II

बसंत के आगमन से ही 
गाँवों में जो उठने लगती है 
फगुनई बयार ...
वो उठ कर 
हमारी जानिब भी आती हैं 
देने संदेशा फाग की 
मगर शहर की 

ऊँची मीनारों से टकराकर 
मायूस लौट जाती है 
कंक्रीट से घिरे हम 
नहीं सूंघ पाते 
महुवे की मीठी सुगंध ,
आम का बौराना ,
कोयल की कूक
टेसू का सूर्ख रंग 
पियारती सरसों का पीलापन 
सुनहली होतीं गेहूं की बालियाँ 

अब तो दीवारों पर टंगी केलेंडर 
और पुलिस की गस्त 
देती है इत्तिला त्योहारों की 
और हम स्मृति के केनवास पर 
अंकित उन छवियों को याद कर 
रस्म अदायगी के तौर पर 
हाथ में केमिकल गुलाल लिए 
एक दूजे को लगा कर 
कह लेते हैं "हेप्पी होली

~स-रोज़~

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