नेह के नीले एकांत में
तुम, मुझसे विमुख
किन्तु......
तुम्हारा मौन
मेरे सन्मुख
रच देता है
स्नेह की परिभाषा
इस नेह को निहारता सूरज
समेट लेता है
अपनी तीक्ष्ण किरणें
और तुम .......
बादलों के कान में
धीरे से कुछ कह कर
बन जाते हो आकाश
के तभी बूंदे बरसने लगतीं हैं
और मैं मिटटी सी गल कर
बन जाती हूँ धरती।
.
बिन मौसम बरसात की बूंदे यूँ ही नहीं बरसती ......
s-roz
तुम, मुझसे विमुख
किन्तु......
तुम्हारा मौन
मेरे सन्मुख
रच देता है
स्नेह की परिभाषा
इस नेह को निहारता सूरज
समेट लेता है
अपनी तीक्ष्ण किरणें
और तुम .......
बादलों के कान में
धीरे से कुछ कह कर
बन जाते हो आकाश
के तभी बूंदे बरसने लगतीं हैं
और मैं मिटटी सी गल कर
बन जाती हूँ धरती।
.
बिन मौसम बरसात की बूंदे यूँ ही नहीं बरसती ......
s-roz
वाह!! खूबसूरत !!
ReplyDeleteहर्दिक आभार अभी जी
Deleteधरती और आकाश की बढ़िया तुलना की है...
ReplyDeleteहार्दिक आभार Vanbhatt ji
ReplyDeleteहार्दिक आभार Vanbhatt जी
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर......
ReplyDeleteऔर मैं मिटटी सी गल कर
ReplyDeleteबन जाती हूँ धरती।
एक बहुत ही सवेदनशील कवयित्री को मेरा सलाम...भावपुर्ण कविता