दिन-भर की उलझी गुत्थियों से ठिठक जाती है रात
गर धूप मांगे शीतल चांदनी,तो बिदक जाती है रात !
मेरी यादें और तन्हाइयां, तारीक़ियों में सकूं पाती हैं
इक पल को जो मांगूं साथ,तो खिसक जाती है रात ! !
सड़क पर पड़ी घायल आबरू लोगों के लिए तमाशा है
बढ़ाता नहीं कोई अपना हाथ,तो सिसक जाती है रात !
दिन तो आइना है सभी के दर्द नज़र आते हैं सभी को
लेकर मरहम जो बढ़ाऊँ हाथ, तो हिचक जाती है रात !
उधार की रौशनी पर भले ही चाँद गुरुर करता हो मगर
रखने को उसे शफ्फाफ़ और गहरी छिटक जाती है रात !
रंग, मज़हब, वर्ग का फ़र्क तो उजाले में नज़र आता है
पूछ ले गर कोई उसकी जात,तो झिझक जाती है रात !
ख़ूबसूरत ग़ज़ल
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका अज़ीज़ जी
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका दर्शन जी
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