अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Saturday, August 24, 2013

ग़ज़ल

नज़र आये तू.. वो नज़र कहाँ
यूं तो हर जगह तू, मगर कहाँ !
 
डूबकर मुझमे, फिर उबर आये तू
दरिया-ए-उल्फत में वो लहर कहाँ !!

मौज़ूद होके मुझसे जुदा रहा वो
इबादत में मेरी....वो असर कहाँ !

मेरी आवाज़ मुझी में लौट आई  
उसतक मेरी गुहार,कारगर कहाँ !

पीकर बन जाए.. फिर मीरा कोई
इबादत के प्याले ..वो ज़हर कहाँ !

तन्हा दिन,तन्हा कटती रातें मगर
परस्तिश से खाली कोई पहर कहाँ !

दरो दीवार ये छत हैं रु-बरु हमसे
कहते हैं इसे घर पर वो घर कहाँ !

मर्ज़-ए-इश्क का इलाज़ बेअसर roz
गोया दर्द बढ़ा है... मुख़्तसर कहाँ !
~s-roz~.......................
मुख़्तसर =कम /short
परस्तिश=आराधना,प्रेम

3 comments:

  1. तन्हा दिन,तन्हा कटती रातें मगर
    परस्तिश से खाली कोई पहर कहाँ !

    वाह!

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