का भईल जे सुने के खरी-खोटी देला
सहरवे हs जे पेट के रोजी-रोटी देला !
जाके मिल में तू लाख बुनs कपड़ा
ढके खातिर देह, खाली लंगोटी देला !
मेहनत कर के इहाँ नईखे कुछ हासिल
जदि बेचs ईमान तs रक़म मोटी देला !
चौउकाचउंध देख, हसरत जिन पाल
पसारे के पाँव चादर बहुत छोटी देला !
इहाँ गरीबन के रोटी मिले भा ना मिले
अमीरन के कुकुरन के चांप-बोटी देला !
आसान नईखे इहाँ चैन के जिनगी "रोज़"
जिंदा रहे खातिर रोज नया कसौटी देला !!
~s-roz~
khubsurast gazal...
ReplyDeleteआभार सुषमा जी
Deleteबहुत खूबसूरत रचना, ज़िंदगी से रूबरू करवाती इस ग़ज़ल के लिए आभार
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