अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Saturday, May 18, 2013

ये शहर ...(ग़ज़ल )


 क्या हुआ सुनने को खरी-खोटी देता है
ये शहर ही है,जो पेट को रोटी देता है !

जाकर मिल में तुम लाख बुनो कपड़े
ढकने को जिस्म, सिर्फ लंगोटी देता है !

मेहनतकश को यहाँ नहीं कुछ हासिल
गर बेचो ईमान,तो रक़म मोटी देता है !
...
चौकाचौंध देख, ज्यादा हसरतें न पाल
पसारने को पाँव, चादर छोटी देता है !

यहाँ गरीबों को रोटी,मयस्सर हो न हो
अमीरों के कुत्तों को,चांप-बोटी देता है !

आसां नहीं पुर-सकूं जीना यहाँ "Roz"
ज़िंदा रहने को,रोज़ नई कसौटी देता है !
~S-roz~

4 comments:

  1. शुभम सरोज जी
    आपकी यह रचना कल बुधवार (22 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

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    1. हार्दिक आभार सरिता जी

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  2. हार्दिक आभार अमृता जी !

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