परिणय मंडप में धरे दो कलशों में
बराबर ,भरे गए मधुर संबंधों के सभी तत्व
प्रेम, मैत्री, स्नेह और विश्वास
और इससे तैयार हुआ,गृहस्थी का कांवर
यात्रारंभ में जब कंधे की बारी आई
तुम्हारे अहम् ने ...........
उसे अपने कंधे पर रखना स्वीकारा
मैं पथगामिनी ,तुम्हारी सहचर
साथ चलना बदा था
सभी ऋतुओं अवरोधों को पार करते
शिवालय तक !!
प्रारंभ, सूर्योदय की स्निग्ध लालिमा लिए
थकन से दूर ,वानस्पतिक सम्पदा से पूर्ण
उत्सव से भरा अरण्य था !
चलते समय ..........
आगे के घट का छलकना तुम्हे दिखता था
तुम संभल जाते
पीछे का घट ,जो मेरा था
जाने कितनी बार छलका
किन्तु ,वह अदीख था तुम्हारे लिए
जितना छलकती
तापस भूमि पर पड़ते ही ,वाषिप्त हो जाती
और मेघ बन तुम्हारे शुष्क अधरों पर बरस जाती
और नेत्र कोरों के जल के आशय से
उस घट को पुनह भर देती
कारण, कांवर में
दोनों घटों में संतुलन आवश्यक था !
वर्षा ऋतू में जल से भरे मार्ग में
जाने कितनी बार पाँव फिसला तुम्हारा
हर बार कांवर के साथ साथ
तुम्हे संभालते हुए मैं स्वयं आहत हो जाती !
शीत ऋतू में ,तुम्हारे ठिठुरते देह पर
अग्रहायणी की प्रातः धूप सी
तुम्हारे देह पर पसर जाती !
तुम्हारे नंगे पाँव आहत न हों इसलिए
कंटीले मार्ग पर
पतझड़ की मरमरी पत्तियों सी मार्ग पर बिछ जाती !
किन्तु इन सब से अनभिग्य
तुम यदा कदा विस्मृत भी हो जाते हो कि
साथ तुम्हारे मैं भी हूँ ........!
जीवन के इस पड़ाव पर
तुम्हारे मुख पर सूर्यास्त सा मलिन भाव
नहीं देखा जाता ,
यह कांवर तुम्हे बोझ न प्रतीत हो
अतः कुछ देर को,यह मुझे दे सकते हो
किन्तु ओह्ह !! तुम्हारा अहम् !!
प्रिय ,देखो शिवालय की घंटियाँ
सुनाई दे रही हैं !
तुमने अबतक ........
अपने पुरुषत्व को मेरे स्त्रीत्व से मिलाया है ,
क्या ही अच्छा हो कि ......
तुम अपने भीतर के छिपे स्त्रीत्व को
बराबर ,भरे गए मधुर संबंधों के सभी तत्व
प्रेम, मैत्री, स्नेह और विश्वास
और इससे तैयार हुआ,गृहस्थी का कांवर
यात्रारंभ में जब कंधे की बारी आई
तुम्हारे अहम् ने ...........
उसे अपने कंधे पर रखना स्वीकारा
मैं पथगामिनी ,तुम्हारी सहचर
साथ चलना बदा था
सभी ऋतुओं अवरोधों को पार करते
शिवालय तक !!
प्रारंभ, सूर्योदय की स्निग्ध लालिमा लिए
थकन से दूर ,वानस्पतिक सम्पदा से पूर्ण
उत्सव से भरा अरण्य था !
चलते समय ..........
आगे के घट का छलकना तुम्हे दिखता था
तुम संभल जाते
पीछे का घट ,जो मेरा था
जाने कितनी बार छलका
किन्तु ,वह अदीख था तुम्हारे लिए
जितना छलकती
तापस भूमि पर पड़ते ही ,वाषिप्त हो जाती
और मेघ बन तुम्हारे शुष्क अधरों पर बरस जाती
और नेत्र कोरों के जल के आशय से
उस घट को पुनह भर देती
कारण, कांवर में
दोनों घटों में संतुलन आवश्यक था !
वर्षा ऋतू में जल से भरे मार्ग में
जाने कितनी बार पाँव फिसला तुम्हारा
हर बार कांवर के साथ साथ
तुम्हे संभालते हुए मैं स्वयं आहत हो जाती !
शीत ऋतू में ,तुम्हारे ठिठुरते देह पर
अग्रहायणी की प्रातः धूप सी
तुम्हारे देह पर पसर जाती !
तुम्हारे नंगे पाँव आहत न हों इसलिए
कंटीले मार्ग पर
पतझड़ की मरमरी पत्तियों सी मार्ग पर बिछ जाती !
किन्तु इन सब से अनभिग्य
तुम यदा कदा विस्मृत भी हो जाते हो कि
साथ तुम्हारे मैं भी हूँ ........!
जीवन के इस पड़ाव पर
तुम्हारे मुख पर सूर्यास्त सा मलिन भाव
नहीं देखा जाता ,
यह कांवर तुम्हे बोझ न प्रतीत हो
अतः कुछ देर को,यह मुझे दे सकते हो
किन्तु ओह्ह !! तुम्हारा अहम् !!
प्रिय ,देखो शिवालय की घंटियाँ
सुनाई दे रही हैं !
तुमने अबतक ........
अपने पुरुषत्व को मेरे स्त्रीत्व से मिलाया है ,
क्या ही अच्छा हो कि ......
तुम अपने भीतर के छिपे स्त्रीत्व को
मेरे भीतर के छिपे पुरुषत्व से मिला दो
क्योंकि,शिवालय में बैठे उस अर्धनारीश्वर को
यह जलाभिषेक तभी पूर्ण एवं सफल होगा !!
~s-roz~
क्योंकि,शिवालय में बैठे उस अर्धनारीश्वर को
यह जलाभिषेक तभी पूर्ण एवं सफल होगा !!
~s-roz~
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(1-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
हार्दिक आभार वंदना जी !
ReplyDeleteशानदार कविता !
ReplyDeleteऐसे ही भाव की एक कविता >> http://corakagaz.blogspot.in/2013/03/main-ek-mati-ki-murat.html