अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Tuesday, May 14, 2013

"उनके माथे का अरक़,ढलता है टकसालों में"

अनाज बोया गया,दल्ले उगे
खेत सींचा गया ,ख़ुदकुशी उगी

चूल्हे पे रोटी नहीं ,अक्सर ,उठता रहा धुंआ

मुफलिसी की बारिश में सील जाता था ईधन

बच्चों के चेहरों पर ,भूख करती थी नर्तन

उनके माथे का अरक़,ढलता रहा टकसालों में

सिक्के, नाचते रहे अमीरों के पंडालों में

वक़्त अब बदल रहा है ,उनकी जमीं पर

अब अनाज नहीं ,इमारते उगती हैं

उनके हाथों में बीज और खाद नहीं

रेता बजरी के तसले होते हैं

नहीं बदला कुछ तो वो ये के
.......
अब भी उनके माथे का अरक़,
ढलता है टकसालों में !
~S-roz

No comments:

Post a Comment