अनाज बोया गया,दल्ले उगे
खेत सींचा गया ,ख़ुदकुशी उगी
चूल्हे पे रोटी नहीं ,अक्सर ,उठता रहा धुंआ
मुफलिसी की बारिश में सील जाता था ईधन
बच्चों के चेहरों पर ,भूख करती थी नर्तन
उनके माथे का अरक़,ढलता रहा टकसालों में
सिक्के, नाचते रहे अमीरों के पंडालों में
वक़्त अब बदल रहा है ,उनकी जमीं पर
अब अनाज नहीं ,इमारते उगती हैं
उनके हाथों में बीज और खाद नहीं
रेता बजरी के तसले होते हैं
नहीं बदला कुछ तो वो ये के .......
अब भी उनके माथे का अरक़,
खेत सींचा गया ,ख़ुदकुशी उगी
चूल्हे पे रोटी नहीं ,अक्सर ,उठता रहा धुंआ
मुफलिसी की बारिश में सील जाता था ईधन
बच्चों के चेहरों पर ,भूख करती थी नर्तन
उनके माथे का अरक़,ढलता रहा टकसालों में
सिक्के, नाचते रहे अमीरों के पंडालों में
वक़्त अब बदल रहा है ,उनकी जमीं पर
अब अनाज नहीं ,इमारते उगती हैं
उनके हाथों में बीज और खाद नहीं
रेता बजरी के तसले होते हैं
नहीं बदला कुछ तो वो ये के .......
अब भी उनके माथे का अरक़,
ढलता है टकसालों में !
~S-roz
~S-roz
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