उतर आओ आसमां से चांदनी के ज़ीने से
तक रहें हैं हम तुम्हें झील के सफीने से !!
झिलमिलाती झील भी आफ़रीं है उस पे
झलक रहा है चाँद निहायत करीने से !!
शब्-ऐ-आख़िर आई है अब मान भी जाओ
जो रूठे हो मुझसे बीते सावन के महीने से !!
तुझमें डूबकर न उबर सके तो कोई गम नहीं
मरना बेहतर है तेरे बिन यूँ घुटकर जीने से !!
तेरी हथेलियों में भरी है इश्क़ की चांदनी
कौन रोक सकता है मुझे जी भर के पीने से !!
आब -ऐ -जम-जम है यूँ ज़ाया न करना "roz"
भिगो लेना दामन उसके माथे के पसीने से !!
~s-roz~
भावों का अनुपम संयोजन ...
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ReplyDeleteसभी शेर लाजवाब हैं
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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सुंदर गजल
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