क्या हुआ सुनने को खरी-खोटी देता है
ये शहर ही है,जो पेट को रोटी देता है !
जाकर मिल में तुम लाख बुनो कपड़े
ढकने को जिस्म, सिर्फ लंगोटी देता है !
मेहनतकश को यहाँ नहीं कुछ हासिल
गर बेचो ईमान,तो रक़म मोटी देता है !
...
चौकाचौंध देख, ज्यादा हसरतें न पाल
पसारने को पाँव, चादर छोटी देता है !
यहाँ गरीबों को रोटी,मयस्सर हो न हो
अमीरों के कुत्तों को,चांप-बोटी देता है !
आसां नहीं पुर-सकूं जीना यहाँ "Roz"
ज़िंदा रहने को,रोज़ नई कसौटी देता है !
~S-roz~
शुभम सरोज जी
ReplyDeleteआपकी यह रचना कल बुधवार (22 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
हार्दिक आभार सरिता जी
Deleteउम्दा..
ReplyDeleteहार्दिक आभार अमृता जी !
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