अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Thursday, August 29, 2013

रात / ग़ज़ल


दिन-भर की उलझी गुत्थियों से ठिठक जाती है रात
गर धूप मांगे शीतल चांदनी,तो बिदक जाती है रात !

मेरी यादें और तन्हाइयां, तारीक़ियों में सकूं पाती हैं
इक पल को जो मांगूं साथ,तो खिसक जाती है रात ! !

सड़क पर पड़ी घायल आबरू लोगों के लिए तमाशा है
बढ़ाता नहीं कोई अपना हाथ,तो सिसक जाती है रात !

दिन तो आइना है सभी के दर्द नज़र आते हैं सभी को
लेकर मरहम जो बढ़ाऊँ हाथ, तो हिचक जाती है रात !

उधार की रौशनी पर भले ही चाँद गुरुर करता हो मगर
रखने को उसे शफ्फाफ़ और गहरी छिटक जाती है रात !

रंग, मज़हब, वर्ग का फ़र्क तो उजाले में नज़र आता है
पूछ ले गर कोई उसकी जात,तो झिझक जाती है रात !

Saturday, August 24, 2013

ग़ज़ल

नज़र आये तू.. वो नज़र कहाँ
यूं तो हर जगह तू, मगर कहाँ !
 
डूबकर मुझमे, फिर उबर आये तू
दरिया-ए-उल्फत में वो लहर कहाँ !!

मौज़ूद होके मुझसे जुदा रहा वो
इबादत में मेरी....वो असर कहाँ !

मेरी आवाज़ मुझी में लौट आई  
उसतक मेरी गुहार,कारगर कहाँ !

पीकर बन जाए.. फिर मीरा कोई
इबादत के प्याले ..वो ज़हर कहाँ !

तन्हा दिन,तन्हा कटती रातें मगर
परस्तिश से खाली कोई पहर कहाँ !

दरो दीवार ये छत हैं रु-बरु हमसे
कहते हैं इसे घर पर वो घर कहाँ !

मर्ज़-ए-इश्क का इलाज़ बेअसर roz
गोया दर्द बढ़ा है... मुख़्तसर कहाँ !
~s-roz~.......................
मुख़्तसर =कम /short
परस्तिश=आराधना,प्रेम

Friday, August 23, 2013

"रोटी और शौक़"

ख़ुशक़िस्मत हैं वो
जिन्हें उनका शौक़
उन्हें रोटी देता है
वरना मैंने तो
रोटी को ..........
शौक़ का ज़िबह करते ही देखा है
दरअस्ल दोनों का नशा
सर चढ़ कर बोलता है
एक का ख़ात्मा होने पर जिस्म मरता है
और ................
दुसरे के खत्म होने पर
मरती है रूह !
~s-roz~

Monday, August 19, 2013

"ग़ज़ल"

नहीं बतातीं अब कुछ, रौनकें बाज़ारों की
पुलिस की गश्त देती है ख़बर त्योहारों की

जरा सी बारिश शहर को दरिया बना देती है
कारें बेच डालो सख्त जरुरत है पतवारों की

दरवाज़े पर दस्तक अब अच्छी नहीं लगती
फ़िक्र बड़ी रहती है मगर फेसबुकी यारों की

माईक,मेज़ें,कुर्सियों का,है तज़ुर्बा बहुत इन्हें  
लड़े ये सीमा पर,ज़रूरत क्या हथियारों की

लिव इन रिलेशनशिप की बेबाक़ ज़िन्दगी ने
हिलाकर रख दी है नींव भरे-पुरे परिवारों की

पैदल मुमकिन है,दिल्ली कोई दूर नहीं roz
मंज़िल पाने को तरसती है कारें क़तारों की
~s-roz~

Sunday, August 18, 2013

"दूब" हूँ मैं

घनघोर वर्षा हो या हो तपता सूरज
शीतलहरी हो या चले शुष्क आंधी
मुझे अपना अस्तित्व बनाए रखना होता है
मेरी नम्रता बचाए रखती है हमें !
अनुकूल हो या प्रतिकूल
सभी परिस्थितियों में
ढूंढ ही लेतीं हूँ
मार्ग जीवित रहने का
आह! कैसा भाग लेकर जन्मीं हूँ
कभी पैरों तले रौंदा जाना
कभी जूतों से मसले जाना
कभी देवों के सर पर सुशोभित होना
तो कभी शुभगुणों से युक्त
सुहागिन के खोइंछे में डाला जाना
कोई भी शुभकार्य मेरा बिना संभव नहीं
जहाँ नेह की वर्षा होती है, पनप जाती हूँ ,
किन्तु सिमित दायरे में ही पनपना होता है
अन्यथा निर्ममता से कोड़ दी जाती हूँ
कभी जो उपर उठने की चेष्ठा करूँ भी
तो कई धारों के हथियारों से
काट-छांट डाली जाती हूँ .....
समानांतर फैलना भाता है सभी को
किन्तु ऊपर उठना नहीं सुहाता किसी को
फिर भी कितना भी झुकाओ
पुनः उठ खड़ी हो जाती हूँ
अमरत्व का वरदान लेकर आई
"दूब" हूँ मैं .....
इस धरा पर हमारी जात से मिलती एक और जात है
"औरत" जात !!!!!!
~s-roz~
*खोइंछा=दुल्हन या सुहागिन को विदाई के समय शुभ-मंगल दायनी स्वरूप उनके आँचल में हल्दी,दूब.और चावल दिया जाता है !
 

Friday, August 16, 2013

जिनगी बीत गईल ..(भोजपुरी ग़ज़ल )


 जिनगी बीत गईल, एगो इहे आस में
कब चैन के सांस आई,हमरे सांस में !

कईसे पकाईं खीर, जिनगी के आंच में
फाटल दूध खुसी के,दुःख के खटास में !

दिनवा भरवा सुरुजवा,खूब तपावे हमके

सेकिला घाव आपन चंदा के उजास में !

हमार अरजवा उनके,एकहू न सुनाला
ना रहल जोर वईसन हमरे अरदास में !

सोझा से ना,टेढ़ा अंगूरी से काम बनेला
तबेसे लागल बानी,हमहूँ इहे परयास में !
~s-roz~

Tuesday, August 13, 2013

"सजन बिन रतिया(भोजपुरी ग़ज़ल )

सजन बिन रतिया, खूब सतावे हमके
बनके छबि अन्हरवा, भरमावे हमके !

रतिया मा रही-रही निनिया उचीक जाले
झिन्गुरवा उनका नामे,गोहरावे हमके !

अब के सवनवा, ऊ अइहें जरुर एही आसे ...
मन के मोरवा बिन बरखा, नचावे हमके !

ओरी से बहल बयार, देके सनेस उनकर
छुआ के उनकर नेहिया, सोहरावे हमके !

बरखा, धरती अउर असमान के संसर्ग हवे
देखा के ई प्रीत,बुनिया रोज़ जरावे हमके !

मन मत कर थोर आ जईहें सजन तोर
कोठवा पs बईठल काग समुझावे हमके !
~s-roz~-------------------
झिन्गुरवा=झींगुर /अन्हरवा=अँधेरा /गोहरावे=पुकारना /बुनिया =बारिश की बूँद /नेहिया=स्नेह /सोहरावे=सहलाना /कोठवा=छत /मन मत कर थोर =मन छोटा न करना (मुहावरा)

Monday, August 12, 2013

"ई सहर ....(भोजपुरी ग़ज़ल )"


 का भईल जे सुने के खरी-खोटी देला
सहरवे हs जे पेट के रोजी-रोटी देला !

जाके मिल में तू लाख बुनs कपड़ा
ढके खातिर देह, खाली लंगोटी देला !

मेहनत कर के इहाँ नईखे कुछ हासिल
जदि बेचs ईमान तs रक़म मोटी देला !

चौउकाचउंध देख, हसरत जिन पाल
पसारे के पाँव चादर बहुत छोटी देला !

इहाँ गरीबन के रोटी मिले भा ना मिले
अमीरन के कुकुरन के चांप-बोटी देला !

आसान नईखे इहाँ चैन के जिनगी "रोज़"
जिंदा रहे खातिर रोज नया कसौटी देला !!
~s-roz~