प्रेमचन्द जयंती (३१ जुलाई) पर उन्हें याद करते हुए .....................
समाज की कड़वी हक़ीकतों को भोगने वाला वो अफ़साना निगार जिसके अफ़सानों को आज भी पढ़ने पर ज़ुल्म,भूख,गरीबी,मज़बूरी,के पैरहन में लिपटे किरदार हमारे सामने ज़िंदा हो, ज़ेहन को झकझोर देते है !
हर उम्र,जात और तबके का आदमी उसके अफ़साने में खुद को खड़ा पाता हैं !ऐसा नहीं कि आज का कलमकार इन मौंजू पर नहीं लिखता बेशक लिखता है! अलबत्ते इसी कलम के ज़ोर पे इत्मीनान बख्श शोहरत और पैसे कमाता है! मगर उनमे, मुफ़लिसी जीने और लिखने का फ़र्क साफ़ नजर आता है!!
ऐसे में कलम का सिपाही" "मुंशी प्रेमचंद याद आता है ..........................
.....................................
अपने सपनों के परों को काटकर
नन्हा "हामिद" रोटी से जले......दादी के हाथों पर
चिमटे का मलहम रखता है
वृद्धाश्रम में रहने वाली
जाने कितनी दादियों की नज़रें
अपने "हामिद" को ढूँढती नज़र आती हैं
और "हामिद" अपने से बड़े सपनों के पीछे
भागता नजर आता है .
ऐसे में मुंशी तेरा "ईदगाह" याद आता है !
बदले नहीं है आज भी "बुधिया" के हालात
वो आज भी कमरतोड़ मेहनत कर
परिवार का दोजख भरती है
और थकन से चूर,ज़ुल्म के प्रसव से तड़पती है
और उसका पति........
अपना दिहाड़ी देसी ठेके में गँवाकर
नशे में धुत्त नाली में गिरा नजर आता है
ऐसे मे मुंशी तेरा "कफ़न" याद आता है !
"जालपा" के चन्द्रहार की हसरत,
उसके पति से ग़बन करवाती है
हसरतें, सभी तबक़े की एक सी हैं आज भी
छोटा आदमी बड़ा और ......
बड़ा आदमी और बड़ा होना चाहता है !
बड़ा आदमी बड़े से बड़े घोटाले कर
आसानी से पचा जाता है
छोटा आदमी चंद रुपयों के एवज
चोरी,घूसखोरी,बेइमानी करता पकड़ा जाता है
ऐसे में मुंशी तेरा "ग़बन" याद आता है !
यूँ तो हाक़ीम-हुक़ुमतों औ ज़ालिम-ज़ुल्मतों का
ज़माना ना रहा मगर
अब भी गाँव का "होरी" कर्ज़ के बोझ से लदा,
ज़िन्दगी से खफ़ा नज़र आता है !
वो जो अपनी ज़मीन पर बैल सा जुता नजर आता था
अब अपनी ही ज़मीं पर औरों की इमारत ढोता नजर आता है
और गुज़र करने को खून बेच दो जून की रोटी कमा लाता है
ऐसे में मुंशी तेरा "गोदान" याद आता है !
राजनीति में शोषण,शोषण की राजनीति बदस्तूर जारी है
प्यास से तड़पता जोखू
कुँए का गन्दला पानी पी जाता है
जैसे गरीब बच्चे "मिड-डे-मील"
खाने को मजबूर हो जाते हैं
तब कुएं में मरा जानवर गिर जाता था
अब उनके खाने में
मरी छिपकली और चूहा निकल आता है
ऐसे में मुंशी तेरा "ठाकुर का कुआं" याद आता है !
~s-roz~
समाज की कड़वी हक़ीकतों को भोगने वाला वो अफ़साना निगार जिसके अफ़सानों को आज भी पढ़ने पर ज़ुल्म,भूख,गरीबी,मज़बूरी,के पैरहन में लिपटे किरदार हमारे सामने ज़िंदा हो, ज़ेहन को झकझोर देते है !
हर उम्र,जात और तबके का आदमी उसके अफ़साने में खुद को खड़ा पाता हैं !ऐसा नहीं कि आज का कलमकार इन मौंजू पर नहीं लिखता बेशक लिखता है! अलबत्ते इसी कलम के ज़ोर पे इत्मीनान बख्श शोहरत और पैसे कमाता है! मगर उनमे, मुफ़लिसी जीने और लिखने का फ़र्क साफ़ नजर आता है!!
ऐसे में कलम का सिपाही" "मुंशी प्रेमचंद याद आता है ..........................
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अपने सपनों के परों को काटकर
नन्हा "हामिद" रोटी से जले......दादी के हाथों पर
चिमटे का मलहम रखता है
वृद्धाश्रम में रहने वाली
जाने कितनी दादियों की नज़रें
अपने "हामिद" को ढूँढती नज़र आती हैं
और "हामिद" अपने से बड़े सपनों के पीछे
भागता नजर आता है .
ऐसे में मुंशी तेरा "ईदगाह" याद आता है !
बदले नहीं है आज भी "बुधिया" के हालात
वो आज भी कमरतोड़ मेहनत कर
परिवार का दोजख भरती है
और थकन से चूर,ज़ुल्म के प्रसव से तड़पती है
और उसका पति........
अपना दिहाड़ी देसी ठेके में गँवाकर
नशे में धुत्त नाली में गिरा नजर आता है
ऐसे मे मुंशी तेरा "कफ़न" याद आता है !
"जालपा" के चन्द्रहार की हसरत,
उसके पति से ग़बन करवाती है
हसरतें, सभी तबक़े की एक सी हैं आज भी
छोटा आदमी बड़ा और ......
बड़ा आदमी और बड़ा होना चाहता है !
बड़ा आदमी बड़े से बड़े घोटाले कर
आसानी से पचा जाता है
छोटा आदमी चंद रुपयों के एवज
चोरी,घूसखोरी,बेइमानी करता पकड़ा जाता है
ऐसे में मुंशी तेरा "ग़बन" याद आता है !
यूँ तो हाक़ीम-हुक़ुमतों औ ज़ालिम-ज़ुल्मतों का
ज़माना ना रहा मगर
अब भी गाँव का "होरी" कर्ज़ के बोझ से लदा,
ज़िन्दगी से खफ़ा नज़र आता है !
वो जो अपनी ज़मीन पर बैल सा जुता नजर आता था
अब अपनी ही ज़मीं पर औरों की इमारत ढोता नजर आता है
और गुज़र करने को खून बेच दो जून की रोटी कमा लाता है
ऐसे में मुंशी तेरा "गोदान" याद आता है !
राजनीति में शोषण,शोषण की राजनीति बदस्तूर जारी है
प्यास से तड़पता जोखू
कुँए का गन्दला पानी पी जाता है
जैसे गरीब बच्चे "मिड-डे-मील"
खाने को मजबूर हो जाते हैं
तब कुएं में मरा जानवर गिर जाता था
अब उनके खाने में
मरी छिपकली और चूहा निकल आता है
ऐसे में मुंशी तेरा "ठाकुर का कुआं" याद आता है !
~s-roz~
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