अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Friday, February 10, 2012

"कुछ मुख्तलिफ से "अश आर "

यूँ कब तलक बसोगे, खफा की, खारदार वादियों में
तुझको  छूकर, आने वाळी हवा भी  बेहद  जख्मी है
~~~S-ROZ~~~
 मै खामोश समंदर,कैसे ना करूँ तूफां की आरजू
वो ही इक शय है ,जो तेरे होने के गुमां देता है
~~~S-ROZ ~~~
ये "दिल"खुद के रोने पे अफ़सोस तक नहीं करता
गर ,जो "वो" रो दे तो कमबख्त बैठ सा जाता है
~~~S-ROZ ~~~
तुम्हे मकानों की आरजू थी , मेरी तमन्ना थी एक घर की
मकानों के मालिक तुम बन गए,रहे तरसते हम इक घर को 
~~~S-ROZ ~~~
हम तो समझे थे के वो "रब" के हैं
अरे धत्त!वो तो बस "मजहब" के हैं
~~~S-ROZ ~~~
वो जब तलक उड़ता रहा हाथो ही हाथ रहा
कटकर जो उलझ गया,अब कोई पूछता नहीं
~~~S-ROZ ~~~

6 comments:

  1. वो जब तलक उड़ता रहा हाथो ही हाथ रहा
    कटकर जो उलझ गया,अब कोई पूछता नहीं ...यही इस दुनिया का सच है,चढ़ते सूरज को हर कोई प्रणाम करता है.

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  2. सरोज जी...पहुँच गयी आपके घर...:)....सुनीता पाण्डेय

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  3. हम तो समझे थे के वो "रब" के हैं
    अरे धत्त!वो तो बस "मजहब" के हैं

    बहुत खूब..
    सादर

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  4. हर एक अशआर बेहतरीन...लाजवाब!!

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  5. वाह..........................
    बहुत खूब ...............

    बेहतरीन रचना.

    अनु

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