त्रिवेणी(एक नई विधा ) के बारे में गुलजार लिखते हैं:-त्रिवेणी न तो मसल्लस है,ना हाइकू,ना तीन मिसरों में कही एक नज़्म। इन तीनों 'फ़ार्म्ज़'में एक ख़्याल और एक इमेज का तसलसुल मिलता है। लेकिन त्रिवेणी का फ़र्क़ इसके मिज़ाज का फर्क है। तीसरा मिसरा पहले दो मिसरों के मफ़हूम को कभी निखार देता है,कभी इजा़फा करता है या उन पर 'कमेंट' करता है। त्रिवेणी नाम इस लिये दिया गया था कि संगम पर तीन नदियां मिलती हैं। गंगा ,जमना और सरस्वती। गंगा और जमना के धारे सतह पर नज़र आते हैं लेकिन सरस्वती जो तक्षिला(तक्षशिला) के रास्ते बह कर आती थी,वह ज़मीन दोज़ हो चुकी है। त्रिवेणी के तीसरे मिसरे का काम सरस्वती दिखाना है जो पहले दो मिसरों में छुपी हुई है।
कुछ त्रिवेणियाँ
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ख्वाबों के बाज़ार में,ख्वाहिशों के गहने सजे दिखे ,
ज्यों ही डाला हाथ किस्मत के बटुवे में....
अपनी मुफलिसी पे हमें रोना आया "
ज्यों ही डाला हाथ किस्मत के बटुवे में....
अपनी मुफलिसी पे हमें रोना आया "
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"काश यूँ आज का दिन ढल जाय,
उसको सोचूं तो दिल बहल जाय
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रही बात कल की, तो कल किसने देखा है ?
"काश यूँ आज का दिन ढल जाय,
उसको सोचूं तो दिल बहल जाय
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रही बात कल की, तो कल किसने देखा है ?
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वो रोज धरती को बनाते है बिस्तर अपना ,
और फिर सर पे गगन ओढ़ सो जाते हैं ....
'गरीबी' की रजाई उन्हें इस ठण्ड से महफूज़ रखती है
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और फिर सर पे गगन ओढ़ सो जाते हैं ....
'गरीबी' की रजाई उन्हें इस ठण्ड से महफूज़ रखती है
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"बंद मुट्ठी कर ये समझ बैठे के ज़िन्दगी पकड़ ली मैंने
खोला तो चंद लकीरों के सिवा कुछ भी न था"
खोला तो चंद लकीरों के सिवा कुछ भी न था"
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क्या पता था के जिंदगी उन्ही टेढ़े मेढ़े लकीरों से होकर गुजरेगी ...
क्या पता था के जिंदगी उन्ही टेढ़े मेढ़े लकीरों से होकर गुजरेगी ...
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"दोस्त" अब ना रहे वो...'तवज्जो' देने वाले .......
फिर भी हर एक शब् ....मुझको आती है "हिचकियाँ ", ....
फिर भी हर एक शब् ....मुझको आती है "हिचकियाँ ", ....
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मेरे "दुश्मनों" से कह दे कोई... इतना याद न किया करें
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~~~S-ROZ~~~