पहर रात का तीसरा है
मैं अपने जिस्म के बाहर खड़ी हूँ
भीतर इक अंधा कुआं है
जिसपर मैं डोल डालती हूँ
मेरी सांसों की रास
उसकी जानिब से
ऊपर नीचे आ जा रही है
मैं उसको बाहर खींचती हूँ
वो मुझको भीतर खींचता है
इसी तसलसुल में ....
मेरी नींद खुलती है या के लगती है
मुझे........
इसका भी इल्म नहीं......
पहर रात का तीसरा है ।
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