अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Wednesday, November 5, 2014

बिसुखी गईया


दूध की नदी जब

शिराओं में सूखने लगती है

और थन उसके सिकुड़ने लगते हैं

तब वो बेदखल हो जाती है

अपने ही परिवार से

 

वृद्धाश्रम ...............

अभी बना नहीं है उसके वास्ते

तभी तो ......वो मनहूस सी

गली मोहल्ले भटकते हुए

चर जाती है ....कूड़े में पड़े

बासी अख़बार की 

मनहूस ख़बरों को

 

 

और फिर ....

जीवन के चौराहे पर

बैठ जुगाली करते

खो जाती है

अपने स्वर्णिम अतीत में

जहाँ उसका गाभिन होना

रम्भाना, बियाना

एक उत्सव था !

 

याद आती है उसे

वो बूढी मलकाइन

जो अब नहीं रही ....

जिसकी आँखों में

उसकी पूंछ पकड़

वैतरणी पार करने की लालसा थी

 

याद करती है

अपनी पुरखिनो को

जिसकी पीठ पर बांसुरी बजा

सांवरे ने ब्रम्हांड डुला दिया था

 

जुगाली के बंद होते ही

वर्तमान उसे ....

देह व्यापार के लिए

कत्लगाह का रास्ता दिखाता है

वो इससे भय खाए

इसके पहले ही

 

कोई खीजते हुए

उसकी पसलियों में कुहनी मार

"परे हट" कहते हुए

चौराहे से हांक देता है 

2 comments:

  1. कोई खीजते हुए

    उसकी पसलियों में कुहनी मार

    "परे हट" कहते हुए

    चौराहे से हांक देता है.......

    कातर होकर निवेदन भी नहीं कर सकता अब ऊपर वाले से, दोषी मैं भी तो कम नहीं।

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