बग़ैर मोड़ हमसफ़र, मुड़ गए तो क्या हुआ
ग़ैर क़ाफ़िलों से तुम, जुड़ गए तो क्या हुआ
कोई आहट भी नहीं, कोई दस्तक़ भी नहीं
भीड़ में अना के बिछुड़ गए तो क्या हुआ
कट गया गली का वो आखिरी दरख़्त भी
शोर करते थे परिंदे, उड़ गए तो क्या हुआ
बीती शब्, तेरे शक-ओ-शुबा की आंधी में
रिश्तों के सफ़हे, मुड़-तुड़ गए तो क्या हुआ
धुंध ने चुरा लियें हैं रंग-ओ-चमक धूप के
ठंड से दिन ये, सिकुड़ गए तो क्या हुआ
भरा रहे दरिया प्रेम का, 'रोज़' इसके वास्ते
रेत साहिल के सारे निचुड़ गए तो क्या हुआ !
~s-roz~
बहुत बहुत शुक्रिया नीरज !
ReplyDelete:)
Deleteकट गया गली का वो आखिरी दरख़्त भी
ReplyDeleteशोर करते थे परिंदे, उड़ गए तो क्या हुआ ...
गज़ब का एहसास लिए है ये शेर ... उड़ जाने का सबब हर कोई नहीं समझ पाता ...
आपने समझा आपका बहुत शुक्रिया दिगंबर जी
Deleteबहुत सुंदर गजल..वाह
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