नेह के नीले एकांत में
क्षितिज की सुनहरी पगडंडी पर
चलते हुए.....
तुम्हारे होने या ना होने को
सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच
कभी विभक्त नहीं कर पायी मैं !
जाने कब से
धरती पर चलती आ रही मैं
इस ज्ञान से परे, कि
तुम अपनी छ्त्रछाया में
संरक्षित करते आये हो मुझे !
अपनी थाली में परोसते रहे
मन भर अपनापन
ना होते हुए भी तुम्हारे होने का
आभास् होता रहा मुझे !
ऋतुएँ संबंधों पर भी
अपना असर दिखाती है शायद
चटकती बिजली ने
तुम्हारे सिवन को उधेड़ते हुए
जो दरार डाली है
तुम्हारी श्वेत दृष्टि अब श्यामल हो उठी है !
या तुम बहुत पास हो
या कि बहुत दूर
पर वहां नहीं हो जहाँ मैं हूँ
संबंधों पर ठण्ड की आमद से
सूरज भी अधिक देर तक नहीं टिकता !
ऐसे अँधेरे से घबराकर मैं
स्मृतियों की राख में दबी
चिंगारियों को उँगलियों से
अलग कर रही हूँ
किन्तु उससे रौशनी नहीं होती
बल्कि उंगलियाँ जलतीं है !
तुम्हे दस्तक देना चाहती हूँ
पर तुम तो आकाश हो ना
कोई पट-द्वार नहीं तुम्हारा
बोलो....तो कहाँ दस्तक दूँ ?
जो तुम सुन पाओ !!!
~s-roz~
बहुत खूब...आकाश को कहाँ दस्तक दी जाये...
ReplyDeleteसदर आभार वाणभट्ट जी
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Deleteसादर आभार वाणभट्ट जी
Deleteकोमल भावो की अभिवयक्ति......
ReplyDeleteसदर आभार सुषमा जी
Deleteबहुत बेकरारी .....
ReplyDeleteतुम्हे दस्तक देना चाहती हूँ
पर तुम तो आकाश हो ना
कोई पट-द्वार नहीं तुम्हारा
बोलो....तो कहाँ दस्तक दूँ ?
जो तुम सुन पाओ !!!