रास्ते के गर्द आलूद पत्थर पर
जो उसकी नज़रें इनायत हुईं
उसे गढ़ने को वो मचलने लगा
शिल्पी उसे तराशता गया
बुत निखरती गई, संवरती गई
राहगीर रुक रुक कर
उसके रूप को निहारा करते ...
कभी कोई बोल उठता
"जान पड़ता है इसमें जान ही डाल दोगे"
इन सब से बे खबर
उसकी छेनी हथौड़ी चलती रही
अचानक जोर की चोट
और उसकी उँगलियों में उभर आये
लहू के चंद क़तरे........
शिल्पी नफरत से भर उठा
उसे वहीँ छोड़ आगे बढ़ गया
कोई और मूरत गढ़ने
अब ना वो बुत ही रही ना ही पत्थर
नीम ज़िन्दा सी ....
हर आने जाने वालो की
हिक़ारत भरी उन नज़रों से कहती
'इक चोट की मुंतज़िर हूँ मैं '
बावली, नहीं जानती
आज का राम
वो वक़्त है ..............
जो जिस राह गुज़र गया
फिर लौट के नहीं आया
इक पल का वक़्त जो उसके पास होता
तो उस वक़्त देख पाता
जो लहू के क़तरे उसके हाथों पर उभरे थे
वो उसके नहीं .....
बुत के सीने से निकले थे
आह !! चोट खाकर भी चोट की मुंतज़िर है अहिल्या !!
~s-roz~