अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Saturday, April 6, 2013

ये ज़िन्दगी क़स्बे की, खराब रास्ते की पुरानी बस है"


 ये ज़िन्दगी क़स्बे की खराब रास्ते की पुरानी बस है ! जो खचाखच सवारियों से भरी लचकती-धचकती चलती है ! कई मर्तबा ऐसा जान पड़ता है कि बस अब पलटी की तब पलटी....बस की आखिरी सीट की खिड़की वाली सीट पर बैठी सब देख रही हूँ .....!
जिस जगह अभी बस रुकी है कुछ सवारीयां उतरी .......उससे ज्यादा भर गयी "वक़्त का कं...डक्टर" भरी बस की परवाह किये बगैर सवारी भरने में मशगूल है ,अब तो खड़े होने की भी जगह नहीं बची ! बस घरघराती फिर चल पड़ती है, कंडक्टर सभी से टिकट वसूलने लगा है .......उसे इतनी जल्दी है कि किराये के बकाये पैसे लौटाता नहीं टिकट के पीछे लिखकर सवारी को दे देता है, यह कहकर की छुट्टा नहीं है उसके पास ! अपने काम से फारिग हो कंडक्टर सीट पर आकर बीडी सुलगा कर आराम से पी रहा है .....इस बात से बेफिक्र की पिछली सीट पर एक औरत पल्लू से नाक दबाये है, एकबारगी मन हुआ उठू और उसकी बीडी खिड़की के बाहर फेंक दूँ पर तुरंत अपनी सीट खो देने का खौफ हो आया .....खैर !!
मेरी अगली सीट पर एक जोड़ा आकर बैठा है अभी .....सर पर पल्लू धरे ,लाल बिंदी ,पैरो में महावर,नारंगी सिन्दूर माथे पर चमक रहा है, गवना करा कर ला रहा है शायद....!कनखियों अपने साथी को देख लेती है, सकून दिख रहा है उसके चेहरे पर ,मानो चाह रही हो कि ये सफ़र कभी ख़त्म न हो .....बेहतर जानती है वो कि ससुराल में साथी का साथ रात के कुछ पहर तक का ही होगा ! बाकी वक़्त घरवालो के नाम ! बस जब जब हिचकोले खाती है दोनों कुछ ज्यादा ही एक दुसरे के ऊपर गिरते हैं और हलकी मुस्कान आ जाती है दोनों के चेहरे पर !
मेरे बायीं तरफ वाली रो के अगली सीट पर एक बूढा एक पुरानी काली बैग जिसकी ज़िप टूटी हुई है और सेफ्टी पिन से जोड़ी गई है फिर भी अन्दर से खिलौने का डब्बा झाँक रहा है..और साथ में दवा की शीशी और दवाइयों का चमकीला फ्लेप भी दिखाई पड़ रहा है !खिलौना शायद अपने नाती के लिए शहर से खरीद कर ला रहा है और दवा अपनी बुढ़िया के लिए शायद ! बैग को छाती से चिपकाए है और आँखों में बेचैनी है !घर पहुचने की बेहद जल्दी है उसे ...जाने दवा जरुरी है या नाती का खिलौना ?
बस के एक तेज़ धचके से आगे बैठे किसी बच्चे को चोट लगी है शायद रो रहा है !बाकी सवारी की शक्लें मैं नहीं देख पा रही सबसे पीछे जो बैठी हूँ ...खड़े सवारियों के चेहरे पर बस एक से भाव है 'मेरा घर जल्दी आये" झुक झुक कर खिड़की से देख लेते हैं कि कहाँ पहुचे ?
आखिर मेरी मंजिल भी आ ही गई धक्का मुक्की करते बाहर निकल ही आई .......बस फिर चल पड़ी ..अचानक से याद आया मैंने कंडक्टर से बकाये पैसे तो लिए ही नहीं ?......अफ़सोस हुआ और साथ यह इल्म भी के "वक़्त खुद हमें कभी वक़्त नहीं देता, हमें वक़्त से माक़ूल वक़्त लेना होता है" !!
मैं उस बस में बैठी यही सोच रही थी कि"जिंदगी कमोबेश सभी की एक सी होती है ....ये कभी धीरे कभी तेज़ कभी हिचकोले खाते चलती है और मंजिल तक पंहुचा ही देती है , चाहे ये ज़िन्दगी क़स्बे की खराब रास्ते की पुरानी बस ही क्यूँ न हो ! :)
~s-roz`

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