पहर रात का तीसरा है
मैं अपने जिस्म के बाहर खड़ी हूँ
भीतर इक अंधा कुआं है
जिसपर मैं डोल डालती हूँ
मेरी सांसों की रास
उसकी जानिब से
ऊपर नीचे आ जा रही है
मैं उसको बाहर खींचती हूँ
वो मुझको भीतर खींचता है
इसी तसलसुल में ....
मेरी नींद खुलती है या के लगती है
मुझे........
इसका भी इल्म नहीं......
पहर रात का तीसरा है ।
अधूरे ख्वाब
विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....
Sunday, April 24, 2016
पहर रात का तीसरा है
Saturday, April 23, 2016
"मैं पानी पानी"
मैं पानी पानी
फितरत मेरी बहते रहना
प्यास में सबके तिरते रहना
तू पत्थर है ....
खुद को खुदा कहते रहना
हालात से मेरे न वाफ़िक़ रहना
अज़ल से तू ठहरा है मुझमे
जाने कितना गहरा है मुझमे
तब से तुझको घोल रही हूँ
ढल जा मुझमे बोल रही हूँ
पर तू पत्थर है
पत्थर ही ठहरा
परबत मैदां साहिल सहरा
सबसे तेरा मेल है गहरा
सूरज की किरनों में चमके
चकमक तेरा रूप सुनहरा
मैं पानी पानी
फ़ितरत मेरी बहते रहना
सबकी प्यास में तिरते रहना
पर ये तो तय है
वक़्त के बहते झरने में
इक दिन ......
धार से मेरी
तू घुल जाएगा
पर अफ़सोस.....
तब मैं सर्द हो जाउंगी
देखना मैं बर्फ हो जाउंगी ।
Sunday, April 17, 2016
बैसाख आने को है
चैत में चित पड़ीं हुई हैं ज़र्द पत्तियां
शाखों पर सब्ज़ कोपलें
ले रही हैं अंगड़ाइयां
बिरहन हवा के आंचल में
क़ैद हुए ज़र्द पत्ते
शोर-ओ-गुल में मुब्तला हैं
शायद अपने आखिरी अंजाम से डरते हैं
उन्हें अब हवा की ज़द में ही
सोना और जगना है
अपने दर्द को ज़ब्त कर
सर्द रातों में सुलगना है
सूरज के सुनहले गेसू
हर जगह तारी है
हवा औ सूरज में
कानाफूसी जारी है
जो हौले से
मेरे कानों को जतलाता है
बैसाख आने को है
ये बतलाता है
बैसाख के अंगने में
गेहूं की बालियाँ
पककर सुनहली हो चलीं हैं ....
वाक़ई ! बाज़ार में
ये बालियाँ सोने की हो जायेंगी
ललचाता सा मेरा किसान दिल
हिदायती लह्ज़े में मुझसे कहता है
"रोज़! सहेज लेना सोने की बालियाँ
बेटी के ब्याह को काम आएँगी !
Saturday, April 2, 2016
वसीयत
जो कभी...... न मिलूं
तो गम न करना
माना, तुमको अज़ीयत होगी
तुमसे रुबरु मेरी हकीक़त होगी
ये जिस्म जो फ़ानी है
बे-मुरव्वत ज़िन्दगी की
नामुराद कहानी है
तब .......तुम्हे .........मैं
उन्ही किताबों में मिलूंगी
जहाँ..........
तुमसे लबरेज़ मेरे लफ्ज़
नज्मों की शक्ल में
सांस लेते हैं
लफ़्ज़ों से गुफ्तगू करते-करते
जो तुम्हे नींद आ जाए
तो अपने सीने पर
किताब रख
सो जाना
तुम पाओगे कि,
इससे करीबतर
हम और तुम
कभी और कहीं
रहे ही नहीं !
...............................................बस इत्ती सी है मेरी वसीयत !